Wednesday 21 March 2018

राजस्थान की प्रमुख प्रथा/कुप्रथाएं

By Anuj beniwal
           प्राचीन काल से ही राजस्थानी संस्कृति और सभ्यता अपनी विशिष्टता के कारण एक अलग पहचान रखती है।

 समय परिवर्तन के साथ-साथ समाज में आए अनेकों बदलावों और उतार-चढ़ावों के बीच में राजस्थानी समाज में कुछ वांछित एवं अवांछित प्रथाएं और रिवाज भी जुड़ते गए।
इसी क्रम में राजस्थानी समाज में जुड़ी कुछ प्रमुख कुप्रथाएं निम्नानुसार हैं-

राजस्थान की प्रमुख प्रथाएं (कुप्रथाएं)

सति प्रथा

           पति के मरने के बाद उसके साथ चिता में जलना सति होना कहलाता है। राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ईसवी में बूंदी में इसे गैरकानूनी घोषित किया गया। 1830 ईस्वी में अलवर और 1845 ईस्वी में जयपुर में गैरकानूनी घोषित किया गया। इसे यूरोपीय लेखकों ने आत्मोत्सर्ग की संज्ञा दी है। इसे सहमरण, सह गमन और अन्वारोहण भी कहा जाता है। 1829 ईस्वी में विलियम बैंटिक ने प्रतिबंधित किया। 

अनुमरण

          पति की अन्यत्र मृत्यु हो जाने और उसे वहीं पर जला देने पर उसके किसी चिह्न के साथ पत्नी का सती हो जाना अनुमरण कहलाता है। 

कन्या वध 

           राजस्थान में विशेषतः राजपूतों में प्रचलित थी। इसे विलियम बैंटिक के समय में 1833 में कोटा में और 1834 में बूंदी में गैरकानूनी घोषित किया गया। 

त्याग प्रथा

          राजपूत जाति में चारण भाट लोग विवाह के अवसर पर कन्या पक्ष से एक बड़ी धनराशि की मांग करते थे। जिससे उन्हें चुकाना पड़ता था, अन्यथा समाज में उनका उपहास होता था। जोधपुर के राजा मानसिंह ने 1941 ईस्वी में इस पर रोक लगाई। वाल्टरकृत राजपूत हितकारिणी सभा ने इसे रोकने का प्रयास किया।

डाकण प्रथा 

           डाकण राजस्थान में आदिवासी क्षेत्रों में स्त्रियों पर डाकण होने का आरोप लगाकर मारने की प्रथा। इसे सर्वप्रथम अप्रैल 1853 ईस्वी में मेवाड़ के महाराणा स्वरूप सिंह के समय मेवाड़ भील कोर के कमांडेंट जे सी ब्रूक ने खेरवाड़ा में इसे गैरकानूनी घोषित किया।

दहेज प्रथा

           सन् 1961 ईस्वी में भारत सरकार द्वारा दहेज निरोधक अधिनियम लाया गया। 

डाबरिया या दाबडिया प्रथा 

           राजा महाराजाओं द्वारा अपनी पुत्री की शादी में कुंवारी कन्याएं भी दी जाती थी। 

शारदा एक्ट 

           अजमेर के हरविलास शारदा ने सन 1929 ईस्वी में बाल विवाह निरोधक अधिनियम प्रस्तावित किया। यह शारदा एक्ट के नाम से जाना जाता है। अप्रैल 1986 में से पूरे देश में लागू हुआ। 

बेगार प्रथा 

           किसी व्यक्ति को बिना सहमति के मजदूरी के काम में लेने को बेगार प्रथा कहते हैं। 

बंधुआ मजदूर सांगडी

           साधन संपन्न लोगों द्वारा साधनहीन लोगों को उधार दी गई राशि के बदले में घरेलू नौकर के रूप में रख लेना सागड़ी प्रथा कहलाता है। सन 1976 ईसवी में प्रतिबंधित की गई। 

दापा प्रथा 

           आदिवासी क्षेत्रों में भगा कर लाई गई लड़की का पुरुष पक्ष द्वारा वधू मूल्य चुकाकर विवाह कर लेना ही दापा प्रथा है। 

संथारा 

           जैन धर्म की इस प्रथा में अन्नन जल आदि का त्याग कर शरीर छोड़ना ही संथारा कहलाता है।

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