Sunday, 8 October 2017

आपातकाल और इंदिराराज;

By Anuj beniwal

indira emergancy

               क्या थै वो कारण जिन्होंने इसका मार्ग प्रशस्त किया औऱ क्या था पुर्ववर्ती घटनाएं जिन्होंने इसकी पृष्ठभूमि तैयार की? भाग  प्रथम।

          यह शुरुआत थी उस दौर की जब अंधकार का एक दौर अपने अंत की ओर अग्रसर था। साल के उस समय जब दिन छोटे और रातें बड़ी होने लगती है। अंधकार की एक साये ने भारतीय इतिहास को अंधेरे में जकड़ लिया था।  सुबह तो हुई पर लोगों की आवाज़ गुम हो चुकी थी। लोग अंधेरी कोठरियों में बंद थे। बीसवीं सदी का इतिहास ऐसी त्रासदियों से भरा पड़ा है जिनमें कोई जनप्रिय नेता लोकतंत्र की बदौलत सत्ता में आता है और लोकतन्त्र पर हावी हो जाता है और निजी विचारों में खोकर आत्ममुग्धता का शिकार हो जाता है। ऐसे हालातों में यह स्वार्थी तत्व भ्रष्टाचार और आतंक का सहारा लेकर जनता और विपक्ष की आवाज दबाने की कोशिश करता है और तानाशाही थोपने की कोशिश करता है।

आपातकाल का अंकुरण:

इंदिराराज का उदय 

           25 जून 1975 अंधेरी सायों का कद काफी लंबा हो गया था। आपातकाल की असली वजह कौन है? साल 1975 में जो हुआ था उसकी जड़ेंं ंंकहीं बहुत पीछे जमींं थी। इस सवाल का जवाब सन 1971 में मिल सकता है। जब श्रीमती इंदिरा गांधी ने "गरीबी हटाओ" का नारा दिया था। लेकिन अगर हम इससे थोड़ा और बिछड़ जाएं तो इस सवाल के जवाब भी और बेहतर और सुस्पष्ट तरीके से मिलने लगते हैं।
            संत 1967 से ही भारतीय राजनीति में छवियों का युद्ध शुरु हो चुका था। प्रधानमंत्री का पद पाने के लिए कांग्रेस के भीतर ही इंदिरा गांधी को कांग्रेस संसदीय दल में अपने प्रतिद्वंदी मोरारजी देसाई को हराना पड़ा था। उनके लिए यह बहुत ही असामान्य सी घटना थी। संत 1967 में कांग्रेस को लोकसभा में बहुत ही साधारण सा बहुमत मिला था। उत्तर भारत में अमृतसर से लेकर कोलकाता तक कांग्रेस हर एक स्टेट इलेक्शन हार गई। विपक्षी दलों ने इस चुनाव में गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति अपनाई थी। और नौ राज्यों में संयुक्त गठबंधन की सरकार सत्ता में आ गई थी। इसी आधार पर संसद में भी विपक्षी दलों ने तालमेल किया था और उनकी भूमिका बहुत असरदार हो गई थी।

इंडिकेट बनाम सिंडिकेट 

          कांग्रेस में इंडीकेट बनाम सिंडिकेट का झगड़ा सतह पर आ गया था। जब जुलाई 1969 में बेंगलुरु की एक सभा में यह दोनों पक्ष आमने-सामने हो गये। वजह थी  डॉ. जाकिर हुसैन के निधन के बाद नए राष्ट्रपति के चुनाव के लिए कामराज और उनके साथी नीलम संजीव रेड्डी को राष्ट्रपति बनाना चाहते थे। लेकिन इंदिरा उन्हें मानने को तैयार नहीं थी। इस दौर में इंदिरा के करीबी पी एन हक्सन ने इंदिरा को व्यक्तिगत लड़ाई को वैचारिक रूप देने की सलाह दी और उन्होंने और उनके साथियों ने इंदिरा को निजलिंगप्पा की बजाए अधिक समाजवादी और गरीबों के हमदर्द के रूप में पेश करना शुरू कर दिया।
          बेंगलुरु में ही इंदिरा गांधी ने देश के 14 बैंकों के राष्ट्रीयकरण का ऐलान कर दिया। नई दिल्ली लौटते ही इंदिरा गांधी ने वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को पद से हटा दिया। मोरारजी देसाई बैंकों के राष्ट्रीयकरण के धुर विरोधी थे देसाई के पद से हटते ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण का अध्यादेश लाया गया। जाहिर है इंदिरा गांधी खुद को ऐसे नेता के रूप में स्थापित करना चाहती थी जिसे पार्टी की जरूरत नहीं थी बल्कि पार्टी को उनकी ज्यादा जरूरत थी।

राष्ट्रपति चुनाव 

           राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार थे नीलम संजीव रेड्डी, वी.वी. गिरी निर्दलीय चुनाव लड़ रहे थे और विपक्ष के प्रत्याशी थे सुब्बाराव। जो सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश थे। पार्टी की परंपराओं और मर्यादाओं को किनारे कर प्रधानमंत्री ने यह फैसला किया कि वह वी.वी. गिरि का समर्थन करेंगी। हालांकि यह फैसला शुरुआत में सार्वजनिक नहीं किया गया। कांग्रेस अध्यक्ष निजलिंगप्पा ने जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी से अपील की कि वो सुब्बाराव के बजाय रेड्डी का समर्थन करें।
           राष्ट्रपति चुनाव 20 अगस्त 1969 को होने वाले थे। 16 अगस्त 1969 को इंदिरा गांधी ने पार्टी विधायकों और सांसदों से अपनी अंतरात्मा की आवाज पर वोट देने की अपील की। आखिरकार वीवी गिरि चुनाव जीत गए। 12 नवंबर 1969 को इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। इंदिरा खेमा मुंबई में इकट्ठा हुआ और नई पार्टी का नाम सुधारवादी कांग्रेस यानी कांग्रेस (आर) दिया गया। मूल पार्टी से ऑर्गनाइजेशन कांग्रेस कहां गया।
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शक्तियों का टकराव 

          सरकार अल्पमत में आ गई थी, अब इंदिरा का पद खतरे में था। सत्ता बचाने के लिए ध्रुवीकरण आवश्यक हो गया था। 18 मई 1970 को गृहमंत्री वाई वी चव्हाण ने देसी राजाओं की सुविधाओं को खत्म करने का संविधान संशोधन विधेयक पेश कर दिया। विधेयक लोकसभा में तो पारित हो गया लेकिन राज्यसभा में 1 वोट से गिर गया। ऐसे में राष्ट्रपति के हस्ताक्षर से एक सरकारी आदेश लाया गया और रजवाड़ों की पेन्शन खत्म कर दी गई। 11 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को मनमाना करार दिया। इससे पहले बैंकों के राष्ट्रीयकरण के मामले में भी अदालत बीच में आ गई थी। ऐसे हालातों में अपने अधिकारों और सत्ता को चुनौती मिलते देख प्रधानमंत्री ने जनता के बीच जाने का फैसला कर लिया। हालांकि लोकसभा का कार्यकाल अभी 14 महीने बाकी था। लेकिन इंदिरा ने आरोप लगाया कि गरीबों की भलाई और उनके एजेंडे में प्रतिक्रियावादी ताकतों ने रुकावटें पैदा कर दी है।

इंदिराराज 

1971 का आम चुनाव 

          इस चुनाव में इंदिरा गांधी या उनके किसी गुमनाम साथी ने "गरीबी हटाओ" का नारा दिया। यह नारा इस चुनाव में चल निकला। प्रिवीपर्स खात्मे और बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ इस नारे से चुनावी समा बंध गई थी। जनता से वोट मांगते समय उन्होंने अपने आकर्षक व्यक्तित्व, अपने पिता की ऐतिहासिक छवि और इस नारे का जमकर उपयोग किया। लिहाजा 518 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस को 352 सीटें मिली। दूसरे नंबर पर आने वाली सीपीएम को महज 25 सीटें ही मिली। यह एक व्यक्ति की जीत थी, एक व्यक्तित्व की जीत थी। इस जीत के साथ ही उनके लिए आलोचना बर्दाश्त करना भी मुश्किल होता गया। इसी से कांग्रेस (आर) का नाम बदलकर कांग्रेस (आई) यानी कांग्रेस इंदिरा कर दिया गया। लेकिन शायद किस्मत इंदिरा गांधी पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान थी। सन 1971 में भारत की पाकिस्तान के साथ एक बड़ी जंग हुई और पाकिस्तान को करारी शिकस्त मिली। इस जीत का सेहरा भी जाहिरत: इंदिरा गांधी के सिर ही बंधा।

आपातकाल की और बढ़ती इंदिरा

          लेकिन 1971 के आम चुनावों के बाद भ्रष्टाचार का मुद्दा जनता की सर चढ़ कर बोले लगा। भ्रष्टाचार और महंगाई के बढ़ने से जनता में असंतोष और आक्रोश बढ़ता गया। इंदिरा गांधी ने सबसे पहले कांग्रेस पार्टी के भीतर असंतोष और विरोध को ठिकाने लगाया। राज्य विधानसभाओं में पदाधिकारियों का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से होना बंद हो गया। राज्य अधिकारी के हर पद का नाम इंदिरा खुद चुनने लगी। पार्टी में लोकतंत्र के आधार पर संगठन के चुनाव बंद कर दिए गए। 1971 की लड़ाई के बाद इंदिरा लोकप्रियता के चरम पर पहुंच गई थी। 1972 में मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान और कर्नाटक विधानसभा चुनाव होने थे। लेकिन इंदिरा ने बिहार, पंजाब और हरियाणा की राज्य विधानसभाओं को भी भंग कर दिया और इन राज्यों में भी चुनाव करवा दिए। चुनावों में इंदिरा को जीत मिली।

न्यायपालिका पर शिकंजे की कोशिशें

         इंदिरा लोकप्रियता के शिखर पर तो थी, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उनके दो लोकप्रिय फैसलों पर रोक लगा दी थी। ये मामले थे - प्रिवीपर्स का खात्मा और बैंकों का राष्ट्रीयकरण। जवाब में इंदिरा ने संविधान और अदालत के पर कतरने की ठान ली। नतीजा था संविधान का 24वाँ और 25वाँ संशोधन। 5 नवंबर 1971 को 24वां संविधान संशोधन लाया गया इसमें कहा गया कि संसद संविधान के किसी भी भाग में परिवर्तन ला सकती है चाहे इससे संविधान की मूल भावना ही क्यों न बदल जाए। हालांकि इस से 3 साल पहले ही अदालत मशहूर गोलकनाथ विवाद में यह फैसला दे चुकी थी कि संसद को संविधान के मौलिक स्वरूप में छेड़छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है।
            1972 के अप्रैल में 25वां संविधान संशोधन विधेयक लाया गया इससे बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स के खात्मे पर सरकार जो लड़ाई हार चुकी थी उसे पलट दिया गया। सरकार के इन फैसलों को अदालत में चुनौती दी गई। जिसे केशवानंद भारती विवाद कहा जाता है। सर्वोच्च नयायालय के इतिहास में पहली बार 13 न्यायाधीशों की संविधान बेंच के सामने सुनवाई हुई। जिसमें 7 बनाम 6 से यह निर्णय लिया गया कि संसद के पास संविधान में बदलाव की असीमित अधिकार नहीं है और वह संविधान के मूल ढांचे के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकती। इससे इदिरा के संविधान में बदलाव की उम्मीदें टूट गई, अब इंदिरा क्या करती?.........
           
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इंदिराराज 

न्यायपालिका में दखल

         लोकसभा में उनका प्रचंड बहुमत था, देश के राष्ट्रपति वी.वी. गिरी को भी उन्होंने ही बनवाया था। लेकिन अदालत ने उनके कदमों को रोक लिया था। न्यायपालिका उनकी नहीं थी। अब वो न्यायपालिका पर अपना कब्जा चाहती थी। वो चाहती थी की सुप्रीम कोर्ट सरकार की तरफ हो और सरकारी फैसलों की तरफदारी करें, वह इसे कमिटेड जुडिशरी कहती थी। लिहाजा इंदिरा ने इसके लिए एक अजीबोगरीब कदम उठाया। मुख्य न्यायधीश एम एस गुरी केशवानंद भारती विवाद पर फैसला देने के एक दिन बाद ही सेवानिवृत्त हो गये।
           परंपरा के अनुसार वरिष्ठता में उनके बाद आने वाले जस्टिस सैनत मुख्य न्यायाधीश बनना चाहिए थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ! अप्रैल 1973 में मुख्य न्यायाधीश बने जस्टिस रे, वो भी तीन वरिष्ठतर न्यायधीशों को षीछे छोडते हुए। जस्टिस रे ने प्रिवीपर्स, बैंकों के राष्ट्रीयकरण और संविधान संशोधन जैसे सभी मुद्दों पर सरकार का पक्ष लिया था। इससे क्षुब्ध तीनों वरिष्ठ जजों इस्तीफा दे दिया।
           सरकार के इस कदम जयप्रकाश नारायण बहुत व्यथित हुऐ। व़ो एक स्वतंत्रता सेनानी थे और इस वक्त तक सक्रिय राजनीति छोड़कर समाज सेवा कर रहे थे। जनता के बीच वो जेपी के नाम से मशहूर थे और उन्हें संत की तरह सम्मान दिया जाता था। लेकिन वह देश में घट रही तत्कालीन घटनाओं से बेहद आशंकितथे। लेकिन जब सरकार का रवैया नहीं बदला तो 15 मई 1973 को जेपी ने सभी सांसदों के नाम एक खुली चिट्ठी लिखी।
            न्यायपालिका में सरकारी दखल अंदाजी की कीमत जनता को बहुत आगे तक चुकानी पड़ी। देश में व्यक्तिवाद का उदय हो चुका था। सरकार और न्यायपालिका की इस भिड़ंत में जनतंत्र को कुचल दिया गया और अंधेरे सायों का कद लंबा और लंबा होता चला गया। लोगों की आवाज गुम हो गई, लोकतंत्र में तंत्र का शासन हुआ और लोक अंधेरी कोठरियों में बंद कर दिए गए। भारतीय सविधान खामोश खडा अपने लोकतंत्रके दो स्तम्भों का  आपसी टकराव देख रहा था। वह देख रहा था मूल अधिकारों में हो रहे बदलावों को, वह अदालत से आ रही आवाजों को, वह महसूस कर रहा था शक्तियों में हो रहे टकरावों को, वह देख रहा था कि किस तरह विधायिका मूल अधिकारों में बदलाव पर आमादा है और न्यायपालिका उसे बार-बार आगाह कर रही है। बड़ा कौन, वर्चस्व किसका? इसी जंग में लोकतंत्र के दो स्तंभ आपस में टकरा गए और इसी टकराव में जिसके लिए विधायिका कानून बनाती और अदालती फैसले सुनाती रह गई, वही जनता कहीं पीछे बहुत पीछे छूट गई।
           जनता अपने अधिकारों के लिए लड़ रही थी, वह रोज कालाबाजारी से परेशान थी, भ्रष्टाचार से रोज छली जा रही थी, वह महंगाई से तबाह थी।

इंदिराराज और राज्यों मे हलचल:

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गुजरात में बगावत

            20 दिसंबर 1973, जब अहमदाबाद के एल.डी. इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र गुजरात में फैले व्यापक भ्रष्टाचार और कुशासन से त्रस्त हो चुके थे। राज्य भयंकर सूखे के दौर से गुजर रहा था । उम्मीद जगी थी, जब 1972 के चुनावों में राज्य में मुख्यमंत्री के तौर पर घनश्याम ओझा ने कमान संभाली थी। लेकिन जल्द ही लोगों के हाथ निराशा थी। जमाखोरी का आलम बुलंदी पर था।

गुजरात में सत्ता परिवर्तन

           जनता के रोष को भांंपकर जुलाई 1973 में गुजरात की बागडोर चिम्मन भाई पटेल के हाथों में सौंपी गई। लेकिन इसी बीच  एल.डी. इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रों के खाने के शुल्क 20% तक बढ़ गए। बहरहाल छात्रों का रोष फूट पड़ा। छात्र नव निर्माण समिति का गठन हुआ और 20 दिसंबर 1973 को अहमदाबाद में धरना प्रदर्शन किए गए। छात्रों के विरोध प्रदर्शन को दबाने के लिए पुलिस ने आक्रामक रवैया अख्तियार किया। लाठीचार्ज हुआ, गोलियां चली, छात्रों ने जान गवाई और धीरे-धीरे इस विरोध प्रदर्शन में आम जनता भी जुड़ती चली गई।

गुजरात में फैलती आग

            7 जनवरी 1974 को हुए छात्रों के विरोध प्रदर्शन में पूरा अहमदाबाद शहर आ जुड़ा। 10 जनवरी को पुलिस ने अहमदाबाद और वडोदरा में फायरिंग की। छात्रों का विरोध प्रदर्शन फैल गया। 25 जनवरी को गुजरात के 16 जिलों में बंद का आह्वान किया गया। अगली सुबह 26 जनवरी की थी, गणतंत्र का दिन, संविधान के लागू होने का दिन। लेकिन गुजरात में यह दिन संगीनों के साए में गुजरा। जनता अपनी आवाज की कीमत चुका रही थी और मांग थी सिर्फ रोटी। जनता ना रूकी, ना झुकी, ना डरी। रोष और बुलंद और बुलंद होता गया। 7 फरवरी 1974 को मुख्यमंत्री चिम्मन भाई पटेल ने इस्तीफा दे दिया, लेकिन जनता की मांग थी की विधानसभा भंग की जाए तब 16 मार्च 1974 को गुजरात विधानसभा भंग की गई। छात्रों का यह विरोध 73 दिन चला इसमें 103 लोगों ने जाने गंवाई, 352 लोग घायल हुए और 8000 से भी ज्यादा लोग गिरफ्तार किए गए।

बिहार में आंदोलन

            "गुजरात की जीत हमारी है, अब बिहार की बारी है।" इस नारे के साथ छात्रों की आवाज बुलंद हो रही थी। 18 मार्च 1974 को छात्र संघर्ष समिति ने बिहार विधानसभा का घेराव किया, पुलिस की कार्यवाही में 3 छात्रों ने जान गंवाई। जनता में खबर फैली और आंदोलन हिंसक हो उठा नतीजतन 23 मार्च को बिहार बंद का आह्वान किया गया। इस पूरे हफ्ते में 22 लोग अपनी जान गंवा चुके थे। सर्वोदय मूवमेंट और छात्र संघर्ष समिति के अधिकतर नेताओं को 29 मार्च तक गिरफ्तार कर लिया गया था, ऐसे में जयप्रकाश नारायण छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए तैयार हुए। पटना में 8 अप्रैल 1974 को शांति मार्च निकला। एक बार फिर राज्य में छात्र पुलिस की गोलियों का शिकार बने, 12 अप्रैल को गया में 12 छात्रों की मृत्यु हो गई। धरना, प्रदर्शन, घेराव और शांति मार्च सब चलता रहा लेकिन सरकार पर इन सबका कोई असर नहीं पडा। 23 सितंबर को बिहार में छात्रों ने दमन विरोध दिवस मनाया।

महाराष्ट्र की हड़ताल

           बिहार और गुजरात के साथ-साथ अब महाराष्ट्र में भी हलचल हो रही थी। मुंबई डॉक में काम करने वाले लोग घुट रहे थे। काम के घंटे अंतहीन घंटे बन गए थे। जिससे ये कर्मचारी दुखी थे। छात्रों और लोगों के विरोध से अलग यह कर्मचारियों का प्रदर्शन था। इनके सब्र का बांध टूटा 8 मई 1974 को जब समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस के नेतृत्व में रेलवे के इतिहास की सबसे बड़ी हड़ताल हुई और 1700000 कर्मचारी इससे जुड़े।

JP आंदोलन 

           20 अक्टूबर की तारीख, जब पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में जेपी को सुनने के लिए विशाल जन सैलाब उमड़ पड़ा और पूरे पटना में गूंज रहा था "सच कहना अगर बगावत है, तो समझो हम भी बागी है।" जब जेपी बोलते थे कि अगर तुम जेपी को अपना नेता मानते हो तो कहना जाकर अपने गांव-कस्बोंं में कि उस दिन दुकाने नहीं खुलेगी, गाड़ियां नहीं चलेगी, ऑफिस बंद रहेंगे बोलो तुम साथ हो और लाखों-लाखों हाथ आसमान की तरफ उठ जाते। यह निहायत ही अकल्पनीय दृश्य था। राज्य में फैले व्यापक भ्रष्टाचार, कुशासन और दमनकारी नीतियों के लिए नवंबर में जेपी ने नई दिल्ली में प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से मुलाकात की और तत्काल बिहार में अब्दुल गफूर सरकार को बर्खास्त करने की मांग की लेकिन यह बैठक बेनतीजा रही।
           देश में चल रही बयार और जनता में बढ़ रही असंतोष के बीच पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री और इंदिरा गांधी के नजदीकी सिद्धार्थ शंकर रे ने 28 जनवरी 1975 को इंदिरा गांधी को एक पत्र लिखा। देश में सरकारें जनता से दूर होती जा रही थी।

राजनारायण केस

           साल 1974 का ही था जब सर्वोच्च न्यायालय में श्री राज नारायण ने 1951 के संविधान संशोधन विधेयक के खिलाफ याचिका दायर कर दी। यह वही राजनारायण थे, जिन्होंने लगभग साढे 3 साल पहले 24 अप्रैल 1971 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक अन्य याचिका दायर की हुई थी और वह याचिका थी 1971 के इंदिरा गांधी के चुनाव के खिलाफ।

          मार्च 1971 के पांचवी लोकसभा के चुनावों में एक संसदीय चुनाव क्षेत्र था उत्तर प्रदेश का रायबरेली। रायबरेली से कांग्रेस की उम्मीदवार थी श्रीमती इंदिरा गांधी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार थे श्री राज नारायण। नतीजे आने पर जीत हुई इंदिरा गांधी की वो भी एक लाख से भी ज्यादा मतों से, लेकिन चुनाव पर आपत्ति थी क्योंकि चुनाव जीतने के लिए श्रीमती गांधी पर सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग के सात आरोप उच्च न्यायालय में लगाए गए। उच्च न्यायालय ने मामले की सुनवाई 15 जुलाई 1971 से शुरू की।

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आपातकाल के तात्कालिक कारण:

इलाहबाद उच्च न्यायालय का फैसला

           धीरे धीरे 12 जून 1975 के दिन का सूरज निकला। आज गुजरात विधानसभा के चुनावों के नतीजे आने वाले थे। शाम होते-होते कांग्रेस (आर) सत्ता से बाहर हो गई और कांग्रेस (ओ) के बाबू भाई पटेल नए मुख्यमंत्री चुने गए। सरगर्मियां बढ़ने लगी इलाहाबाद हाईकोर्ट में जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हा की अदालत ने आरोप सही पाए और इंदिरा गांधी को दोषी पाया। चुनाव को अमान्य करार दिया गया, साथ ही इंदिरा गांधी के अगले 6 साल तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगा दी। अदालत ने यह भी पाया कि पुलिस बल और ऑफिसर ऑन ड्यूटी यशवंत कपूर ने इंदिरा गांधी के लिए काम किया था।
           प्रधानमंत्री अब दोषी करार दी गई थी। स्थितियां अब सामान्य नहीं रही थी। प्रधानमंत्री के वकील ने अपील की और आधे घंटे बाद ही जस्टिस जगमोहन सिन्हा ने अपने आदेश को 20 दिन तक लागू करने से रोक दिया।

भंवर में झूलता इंदिराराज

           12 जून 1975 से ही नई दिल्ली में सरगर्मियां बढ़ गई थी। प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी बात लोगों के साथ करने का विचार किया। एक बार फिर दिल्ली की सारी सरकारी मशीनरी इंदिरा गांधी के कदमों में बिछ गई और उनकी हिमाकत में नतमस्तक हो गई। रैलियों का रेला शुरू हुआ और 20 जून को एक विशाल रैली की गई।
           20 जून 1975 को ही इंदिरा गांधी ने अदालत में एक याचिका भी दायर की थी। वेकेशन जज जस्टिस कृष्णा अय्यर की अदालत ने 24 जून को फैसला दिया कि श्रीमती गांधी प्रधानमंत्री के पद पर कार्य कर सकती हैं, लेकिन वह संसद पर किसी भी विषय पर वोट नहीं कर सकती हैं। अदालत के फैसले ने कांग्रेस में बेचैनी ला दी थी। हर किसी को इंतजार था अगले कदम का। कांग्रेस की खिलाफत में पूरा विपक्ष एकजुट था तो वहीं JP दिल्ली में एक बहुत ही विशाल रैली करने वाले थे।

जयप्रकाश नारायण की रैली

         यह दिन था 25 जून 1975 का, भारतीय इतिहास के सबसे उजले पन्नों में से एक। नई दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली का नेतृत्व कर रहे थे जयप्रकाश नारायण। दोपहर में जब रैली शुरू हुई तोउनकी अपील पर 500000 से भी ज्यादा लोग इस रैली में उमड़ पड़े। हर तरफ बस चेहरे ही चेहरे थे, भीड़, भीड़ और बस भीड़।
           रैली में जयप्रकाश नारायण ने कहा कि "अगर अदालत के फैसले के बाद भी इंदिरा गांधी इस्तीफा नहीं देती है तो प्रधानमंत्री निवास का घेराव होगा।" इसी रैली में लोकनायक ने कहा था कि "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" और जयप्रकाश ने यह भी पुलिस बल और सेना से कहा कि "अगर सरकार का कोई फैसला गलत लगे तो उसे न माने।"
            JP के इस बयान को सरकार ने सेना को बगावत के लिए उकसाने वाला माना। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बयान दिया कि "एक जना इस हद तक गया है कि वह सेना को कहता है कि तुम्हें अगर कोई आदेश गलत लगे तो उसे नए मानो। यह कार्यक्रम इस महीने की 29 तारीख से होने वाला है........."
           इंदिरा के बयान का यह एक जना कोई और नहीं, जयप्रकाश नारायण थे। वही जेपी जिसे जवाहरलाल नेहरू भारत का उपप्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, वही JP जो इंदिरा को "मेरी प्यारी इंदु" कहकर सलाह देते थे, वही JP जिसे जनता संत समान दर्जा देती थी, वहीं JP जिन्होंने कभी कुर्सी नहीं चाही थी।
            JP की रैली में क्या-क्या हो रहा है इसके पल-पल की जानकारी इंदिरा गांधी को मिल रही थी।

आपातकाल:

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            25 जून 1975 शाम 7:00 बजे जगह 1, सफदरजंग रोड। इस भवन में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी, इस बैठक में शिरकत कर रहे थे दिल्ली के उपराज्यपाल कृष्ण चंद्र, हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल और गृह राज्यमंत्री ओम मेहता। शाम 7:00 बजे पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे भी इस बैठक में पहुंच गए।
             28 जनवरी 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने श्रीमती इंदिरा गांधी को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें आपातकाल की तैयारियों का जिक्र था और उन लोगों के नामों की सूची थी जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था। दस्तावेजों के मुताबिक सिद्धार्थ शंकर रे ने देश के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों को आनंद मार्ग और आरएसएस के नेताओं की सूची बनाने का काम दे रखा था। इस समय ये लोग इस सूची में बस कुछ नामों का जोड़ घटाव कर रहे थे, लेकिन राजनैतिक जवाब तैयारी के साथ देने की अलग चुनौती आ खड़ी हुई थी।
             इस बैठक में संवैधानिक जवाब देने का मसौदा ही तैयार किया जा रहा था। इस मसौदे में आगे के कदमों का जिक्र था। इंदिरा गांधी और सिद्धार्थ शंकर रे राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने उनके निवास पहुंचे और राष्ट्रपति से यह मुलाकात महज 20 मिनट चली। इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति को जेपी की रैली के बाद खराब हुए हालातों के बारे में बताया और तय हुआ कि एक अनुरोध पत्र राष्ट्रपति को दिया जाएगा और आगे क्या करना है यह भी उस पत्र में लिखा होगा। रात 11:20 पर इंदिरा गांधी के निजी सचिव आर.के. धवन एक बार फिर राष्ट्रपति भवन पहुंचे, उनके हाथ में एक पत्र था, प्रधानमंत्री का पत्र राष्ट्रपति के नाम। तयशुदा कार्यक्रम के तहत राष्ट्रपति ने इस कागज पर दस्तखत कर दिए, लेकिन जद्दोजहद अभी खत्म नहीं हुई थी। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद इसी बात पर देर तक माथापच्ची होती रही कि अब देश की जनता को क्या और कैसे बताना है।
           ............. और हुआ वही जिसके बारे में किसी ने सपने में भी नहीं सोचा सोचा था। तयशुदा कार्यक्रमों को अब अमल में लाया जाने लगा। सोते हुए लोगों को जगा कर कहीं और ले जाया जाने लगा। चौतरफा गिरफ्तारियां शुरू हो गई थी और ठीक इसी वक्त दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग की बिजली चली गई। इसी मार्ग पर ज्यादातर अखबारों के दफ्तर थे, अखबारों के प्रिंटिंग प्रेस थे, अखबारों की प्रिंटिंग रुक गई और अखबार नहीं निकल पाए।
           यह काली अंधेरी रात बहुत बहुत लंबी थी। रात 2:30 बजे गांधी शांति प्रतिष्ठान नई दिल्ली, जहाँ जयप्रकाश नारायण राम लीला मैदान से रैली करके आने के बाद आराम कर रहे थे। उन्हें नींद से जगा कर, देश के सबसे बड़े गांधीवादी नेता को आजादी के बाद जेल में डालने की तैयारी हो चुकी थी। तब जेपी ने सिर्फ इतना ही कहा था विनाशकाले विपरीत बुद्धि।
          तो क्या जेपी की रैली से पहले ही इंदिरा ने आपातकाल का मन बना लिया था? अगर हां, तो इसके लिए कैबिनेट की सहमति और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर चाहिए थे। 1 सफदरजंग रोड पर इंदिरा गांधी, सिद्धार्थ शंकर रे और देवकांत बरुआ जो कि उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे, सुबह 3:00 बजे तक यह फैसला करने में लगे थे कि जनता को इस आपातकाल का मतलब और मकसद कैसे समझाया जाए? क्योंकि इससे लगभग 3 घंटे पहले देश में आंतरिक आपातकाल लगा दिया गया था। प्रधानमंत्री का जनता के नाम संदेश तैयार करने के बाद यह बैठक खत्म हो गई।
           चौतरफा बिना वारंट गिरफ्तारीयों का आलम बुलंदी पर था। चौधरी चरण सिंह और मुरारजी देसाई जैसे नेताओं को गिरफ्तार किया जा चुका था। JP को गांधी शांति प्रतिष्ठान से उठाकर संसद मार्ग थाने लाया गया लेकिन पुलिस अधिकारी उन्हें यह बताने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे कि उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है। बाद में जेपी को एक गेस्ट हाउस में ला कर रखा गया और उन पर भारतीय दंड संहिता की धारा 107 लगाई गई। यह सेक्शन सड़क पर आवारा घूमने वालों पर लगाया जाता है।
           26 जून 1975 की सुबह 6:00 बजे कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई गई। बैठक में पहुंचने वाले मंत्रियों को यह एहसास ही नहीं था कि पिछले 6 घंटों में देश कितना बदल गया। बैठक में इंदिरा के 15 मंत्री शामिल हुए, जिनमें से किसी को भी यह पता नहीं था कि देश में आपातकाल लग गया है। इंदिरा ने उन्हें इस बारे में बताया, इसके पीछे इंदिरा का तर्क सिर्फ इतना था कि देश के अंदरुनी हालात ठीक नहीं है और अगले 1 मिनट में कैबिनेट ने इसे अपनी मंजूरी दे दी।
           तब इंद्र कुमार गुजराल सूचना एवं प्रसारण राज्य मंत्री थे, उनकी जगह अधिक विश्वस्त सिपहसालार विद्याचरण शुक्ल को सूचना एवं प्रसारण मंत्री बनाया गया। दूरदर्शन और ऑल इंडिया रेडियो पर जाने वाली सभी ऑन ईयर खबर से पहले सेंसरशिप के लिए एक सेंसर अधिकारी नियुक्त कर दिया गया। अखबारों पर भी सेंसरशिप लगा दी गई। बीबीसी ने सेंसरशिप मानने से इनकार किया तो BBC की सेवाएं भारत में बंद कर दी गई और उनका दफ्तर सील कर दिया गया।
           26 जून 1975 को सुबह 8:00 बजे जैसे ही लोगों ने आदतन रेडियो पर समाचार सुनने के लिए रेडियो ऑन किया तो वो भौचक्के रह गए। ऑल इण्डिया रेडियो पर समाचार वाचन की जगह आवाज आई इंदिरा गांधी की, पहले हिंदी और फिर अंग्रेजी में ...
           "भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है। The President has proclaimed emergency, there is nothing to panic about." 

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