Friday 20 October 2017

भटकती भारतीय न्यायपालिका

By Anuj beniwal
सर्वोच्च न्यायालय

           आज विश्व भर में भारतीय न्यायपालिका एक मजबूत न्याय प्रणाली के रूप में जानी जाती है।
सन 1947 के सत्ता हस्तांतरण के बाद से ही सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐतिहासिक निर्णय दिए हैं, जो युग परिवर्तक एवं क्रांतिकारी सिद्ध हुए हैं। इन निर्णयों ने भारतीय समाज एवं राजनीति की रूपरेखा एवं दिशा बदल दी। 
           यह भी सर्व विदित है कि एक सफल लोकतंत्र के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका बेहद अनिवार्य घटक होता है। बिना एक स्वतंत्र न्यायपालिका के किसी भी लोकतंत्र के स्थायित्व और विश्वसनीयता की गारंटी नहीं दी जा सकती है। इन मापदंडों में भारतीय न्यायपालिका एवं उस के अग्रदूत सुप्रीम कोर्ट ने अब तक बहुत अच्छा काम किया है। लेकिन हाल की कुछ घटनाएं एवं पूर्व में घटित घटनाओं के आंकलन एवं विश्लेषण से यह भी जान पड़ता है कि भारतीय न्याय प्रणाली में कुछ बेहद ही गंभीर कमियां हैं, जिन्हें त्वरित रुप से सुधारा जाना अनिवार्य है अन्यथा यह भारतीय लोकतंत्र एवं भारतीय न्याय प्रणाली की विश्वसनीयता पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह अंकित कर सकता है।
            आरुषि तलवार हत्याकांड भारतीय न्यायपालिका के एक बहुत बड़ी कमी को उजागर करता है। इस केस के बाद भारतीय न्याय प्रणाली पर कई सवाल उठते हैं, जो गंभीर हैं। आज तलवार दंपति को नयायालय निर्दोष घोषित कर दिया तो सीबीआई न्यायालय एवं उसका फैसला देने वाले न्यायधीश की जांच की निष्पक्षता की, निष्पक्ष जांच लाजमी रुप से होनी चाहिए। क्योंकि इस घटना के बाद और विशेषकर सीबीआई न्यायालय के फैसले के बाद में तलवार दंपति एवं आरुषि तलवार का जिस तरह से चरित्र चित्रण किया गया, उनकी भावनाओं को खुर्दबुर्द किया गया, उनकी सम्वेदनाओं के साथ खिलवाड़ किया गया और समाज व मीडिया में उन्हें जिस प्रकार से प्रकाशित एवं उद्घाटित किया गया, क्या यह उनकी मानसिक प्रताड़ना एवं शोषण नहीं था? अगर ऐसा है, तो सवाल यह है जो उससे भी ज्यादा प्रभावकारी होकर सामने आता है कि इन सब के लिए जिम्मेदार कौन है? जब भारतीय न्याय शास्त्र का कहना है कि भले ही सैकड़ों अपराधी छूटे लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए, तो जो तलवार दंपति के साथ हुआ क्या वह भारतीय न्याय शास्त्र का मखौल नहीं उड़ाया गया है, क्यों अब भारतीय न्यायपालिका एवं उसके अधिष्ठाता सुप्रीम कोर्ट इस बात को लेकर गंभीर है कि जो आरुषि तलवार और उसके परिवार के बारे मे न्यायाधीश ने कहा है, उसका भी न्यायिक पुनरावलोकन होना चाहिए? क्यों गलत निर्णय देने वाले न्यायाधीशों को न्यायमूर्ति के ओहदे से नवाजा जाना चाहिए? हो सकता है उनके सामने साक्ष्य गलत रूप से पेश किए गए हो और वह इन बातों से अनभिज्ञ हो, लेकिन यह भी वांछित है कि न्यायाधीशों के फैसलों की निष्पक्षता की निष्पक्ष जांच होने की भी व्यवस्था भारतीय न्याय प्रणाली में होनी चाहिए। जो आरुषि तलवार और तलवार दंपत्ति के साथ हुआ उनके जिम्मेदार सीबीआई अधिकारियों एवं सीबीआई कोर्ट के न्यायधीश अगर हैं, तो उनके खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं की जाती है?
           एक और गंभीर सवाल भारतीय न्यायपालिका पर यह भी है कि जो न्यायपालिका भारतीय समाज और भारतीय राजनीति की दिग्दर्शक रही है, वह खुद क्यों नवाचारों से दूर भाग रही है? हाल ही में जब भारत सरकार ने न्यायिक नियुक्ति के संबंध में एक अधिनियम बनाने की कोशिश की तो सुप्रीम कोर्ट ने उसे अपरिहार्य राजनैतिक दखल करार देकर इस अधिनियम को अवैध घोषित कर दिया। तो क्या सुप्रीम कोर्ट भारतीय लोकतंत्र के मूल आधार भारतीय जनमानस को यह विश्वास दिला सकता है कि कॉलेजियम सिस्टम, जिस पर कि फिलहाल नियुक्ति प्रक्रिया आधारित है वह सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया है? अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा करता है तो वह इसके साक्ष्य भी उपलब्ध करवाएं अथवा यह मान लिया जाए कि भारतीय सुप्रीम कोर्ट अब भारतीय लोकतंत्र से भी अपने आप को वृहद उद्घाटित करना चाहता है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि न्यायपालिका एक मजबूत जनसमर्थन के साथ आई जनता की चुनी हुई सरकार के फैसलों का भी सम्मान करती और अगर इस अधिनियम में कुछ अवांछित तत्व थे, तो उन्हें हटा कर उसके स्थान पर किंचित वांछित विषयों को शामिल करने का सुझाव देती। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा नहीं किया। तो क्या यह सुप्रीम कोर्ट के वर्चस्व की लड़ाई को परिलक्षित नहीं करता है? बात अगर न्यायिक सक्रियता की ही की जाए तो यह भारत में नवीन नहीं है। 1975 से लेकर 1980 तक वर्चस्व की जो लड़ाई भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संसद के साथ लड़ी वह जगजाहिर रही है। उस जमाने के कुछ मशहूर फैसलों में से कुछ एक जैसे बैंकों के राष्ट्रीयकरण और राजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे जैसे विषयों पर बिना किसी प्रकार तर्कों के सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इन फैसलों को निरस्त कर दिया था।
           एक और बड़ा सवाल भारतीय न्याय प्रणाली में न्यायिक पुनरावलोकन के बाद फैसलों में हुए भारी उलटफेरों के फेहरिस्त से भी उठता है। जब एक निचली अदालत के फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जाती है, तो वही वकील, वही दलील और वही अपील के बाद भी ऊपरी अदालत निचली अदालत के फैसले को पलट देती है। इससे भी कुछ गंभीर सवाल भारतीय न्याय प्रणाली की निष्पक्षता एवं विशुद्धता पर खड़े हो जाते हैं। इसके मायने कुछ इस तरह से भी निकाले जा सकते हैं की अदालती फैसले संविधान से प्रेरित होकर न्यायधीशों की व्यक्तिगत मानसिकता को परिलक्षित करते हैं। भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कोई कमी नहीं है जब निचली अदालतों के फैसले को उन्ही साक्ष्यों के आधार पर ऊपरी अदालत पलट देती है। तो क्या यह सवाल खड़ा नहीं हो जाता है कि निचली अदालत के जिस न्यायाधीश ने वह फैसला दिया उसके फैसले की निष्पक्षता से निष्पक्ष जांच हो? क्योंकि जब एक ही मुद्दे के उन्ही साक्ष्यों के आधार पर दो अदालतों के दो या अधिक न्यायधीश विरोधाभासी फैसले देते हैं, तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि दोनों अदालतों में से एक अदालत का निर्णय गलत था। अब उस गलत निर्णय की वजह कदाचार, भ्रष्टाचार अथवा पूर्वाग्रह से ग्रसित होना हो सकता है। जब ऐसी परिस्थितियों आमतौर से देखने को मिले और यह भारतीय न्याय प्रणाली के संबंध में एक आम घटना हो जाती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट को अपने भीतर झांकने की जरूरत महसूस नहीं आन पड़ती है? क्यों सुप्रीम कोर्ट का ध्यान इस बात पर नहीं जाता है कि ऐसे फैसले देने वाले न्यायधीशों की कार्य प्रणाली की निष्पक्षता से जानते हो?
           एक और सवाल भी न्यायपालिका से बेहद ही गंभीर सवाल पूछता है, कदाचार अथवा भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे हुए न्यायाधीशों ने जिन जिन मामलों पर निर्णय दिए हैं उन सभी निर्णय का पुनरावलोकन किया जाए। उदाहरण के तौर पर कलकत्ता हाई कोर्ट के न्यायधीश सौमित्र सेन पर संसद में महाभियोग जलाकर कदाचार के आरोप में उन्हें बर्खास्त कर दिया था। तो क्या जस्टिस सौमित्र सेन द्वारा दिए गए सभी निर्णयों पर पुनरावलोकन आवश्यक नहीं हो जाता है या सुप्रीम कोर्ट और भारतीय संसद भारतीय जनमानस को यह विश्वास दिला सकने की हैसियत रखते हैं कि पूर्व में दिए गए जस्टिस सौमित्र सेन की सभी निर्णय निष्पक्ष एवं सत्यापित रूप से सही थे ओर जिस प्रथम मुकदमे में वह कदाचार अथवा भ्रष्टाचार में लिप्त हुए उसी में ही उन्हें अभियुक्त बना दिया गया था? व्यवहार में हम देखते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होता है। तो क्या सुप्रीम कोर्ट को यह अनिवार्य नहीं जान पड़ता है कि वह ऐसी प्रणाली भी विकसित करें जिससे भारतीय न्याय प्रणाली और ज्यादा मजबूत एवं विश्वसनीय हो।
           हाल ही में चर्चित एक अन्य मामले में तो दो अदालतें ही आपस में टकरा गई। अब इस परिस्थिति में किस अदालत के किस न्यायाधीश पर एक आम भारतीय विश्वास करके यह माने की तथाकथित न्यायधीश उचित दिशा में है एवं उनके विपरीत दूसरा न्यायधीश गलत दिशा में जा रहा है? जस्टिस कर्णन और सुप्रीम कोर्ट के बीच हुए विवाद में आखिर किसे सही ठहराया जाए? यह भारतीय जनमानस के लिए एक विकट मानसिक विपदा रही है।
           तमाम तर्को के बावजूद यह भी एक कटु सत्य है कि भारतीय न्याय प्रणाली ने अपने तमाम अनुभवों के बाद में भी सुधार की जितनी संभावनाएं थी उन पर कभी भी गंभीरता से विचार नहीं किया गया है। भारतीय सुप्रीम कोर्ट के बारे में यह कहना पूर्णता गलत किसी भी हिसाब से नहीं होगा कि वह पथ भ्रष्ट हो चुका है। वह अपने मूल कर्तव्यों से भटक कर महान भारतीय सामाजिक मूल्यों और रिश्ते को अव्यवहारिक एवं अनैतिक कानूनों के बंधनों एवं जंजीरों से आजाद करने में लगा है। न्यायालय को यह समझ लेना अति अनिवार्य होगा कि उसकी शक्तियां भी लोकतंत्र में असीमित नहीं है। उसके कर्तव्य भी असीमित नहीं है। लोकतंत्र के लिए यह बेहद अहम एवं बेहतर होगा कि न्यायालय अपनी सीमाओं का आंकलन कर ले एवं उसी के अनुरूप अपनी दिशा एवं दशा निर्धारित करें।
           जहां तक न्यायपालिका के राजनीतिकरण का सवाल है यह भी किसी से छुपा नहीं है कि न्यायधीशों की राजनैतिक रूप से राजनीतिक दलों से मिलीभगत अथवा मेल जोल रहा है। उदाहरण के तौर पर ही हाईकोर्ट अथवा सुप्रीम कोर्ट से रिटायर होने वाले जजों को बाद में राजनैतिक दलों की टिकटों पर चुनाव लड़ने का अवसर मिलता है। जबकि यह स्पष्ट है कि राजनैतिक दलों की टिकटें इतनी आसानी से उनकी सालों साल पार्टी की सेवा करने वाले कार्यकर्ताओं को भी नसीब नहीं होती है। तो यह किस बात का तोहफा उन्हें राजनैतिक दलों से मिलता है यह एक विवेकपूर्ण भारतीय नितांत ही सरल तरीके से समझ सकता है।
           वास्तविक स्थिति में आज भारतीय न्यायपालिका कुंठित मानसिकता एवं पूर्वाग्रहों से विशुद्ध रूप से ग्रसित हो चुकी है। अगर इस न्याय प्रणाली में त्वरित रुप से आमूलचूल परिवर्तन कर एक विश्वस्त ढाचा तैयार न किया जाए तो एक विवेकपूर्ण प्रगतिशील भारतीय के लिए न्याय में आस्था रखना कदाचित भी चिरकाल तक संभव नहीं हो पाएगा और यह भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी हानियों में से एक होगा।

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