Tuesday 17 October 2017

मंडल आयोग और वी पी सरकार

By Anuj beniwal
Mandal Commission
           उस रोज जब माचिस की तिल्ली की आग ने जो आग लगाई उसमें जलने वाला महज एक छात्र नहीं था, बल्कि उन हजारों छात्रों के गुस्से का प्रतीक था, जो सरकार के एक फैसले के विरोध में सुलग रहे थे।
दिल्ली के देशबंधु कॉलेज के राजीव गोस्वामी ने खुद को आग लगाकर बाकी छात्रों के गुस्से की आग को भड़का दिया। क्या थे वह कारण और क्या था मंडल कमीशन? क्यों थी यह नफरत और क्यों हुआ यह सब?
           राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह, 1990 के उस दौर में वह देश के प्रधानमंत्री थे और कुछ छात्रों की नजर में वो देश के सबसे बड़े खलनायक थे। वीपी सिंह कुछ समय पहले तक हीरो थे। वो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते हुए आए थे और फिर मंडल कमीशन को लागू करने का एक बड़ा फैसला उन्होंने किया। एक ऐसा फैसला जिसने न सिर्फ उन दिनों की राजनीति बदली बल्कि हमारे और आपके सोचने का ढंग भी हमेशा के लिए बदल दिया, पर आखिर ऐसा क्या हालात थे कि जिन के लिए वी पी सिंह ने मंडल कमीशन लागू करने का एक दृढ़ निश्चय कर ही लिया था। यह समझने के लिए हमें 1 साल पीछे जाना पड़ेगा जब वी पी सिंह की प्रधानमंत्री के रूप में ताजपोशी हुई।

वी पी सिंह सरकार

प्रारम्भिक उठापटक

           वीपी सिंह से पहले चुनावों में प्रधानमंत्री पद के लिए चंद्रशेखर और चौधरी देवीलाल चौटाला का नाम भी चल रहा था। वी पी सिंह जानते थे की जनता दल की जीत के हीरो वो खुद थे, ऐसे में देश के प्रधानमंत्री देवीलाल या चंद्रशेखर के नाम पर के नाम पर सहमति बनना आसान नहीं होगा। इसलिए उन्होंने बड़ी होशियारी से पहले दोनों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया।
           प्रधानमंत्री का चुनाव होना था, दिल्ली के उड़ीसा भवन में सुबह से ही बैठकों का दौर चल रहा था। प्रधानमंत्री पद की तीनों उम्मीदवार चौधरी देवीलाल चौटाला, वीपी सिंह और चंद्रशेखर वहां मौजूद थे। चौधरी देवीलाल चौटाला और चंद्रशेखर के बीच में अलग से वार्ता हुई, इस वार्ता के दौरान वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर भी वहां मौजूद थे। नैयर के मुताबिक चंद्रशेखर किसी भी हालत में वीपी सिंह के लिए तैयार नहीं थे। उन्होंने देवीलाल से कहा कि उन्होंने सांसद मधु दंडवते से कह दिया है और वो लोकसभा में नेता के चयन के लिए चौधरी देवीलाल चौटाला का नाम लेंगे और मैं आपके नाम का अनुमोदन करूंगा। नैय्यर मुताबिक चंद्रशेखर के तीखे तेवर देख कर उन्होंने उस समय चौधरी देवीलाल को चंद्रशेखर की बात मान लेने का सुझाव दिया। इस बैठक के बाद नैय्यर ने चौधरी देवीलाल को अकेले में समझाया कि अगर वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री नहीं बनेंगे तो पार्टी टूट सकती है और सरकार गिर भी सकती है। इसलिए उन्होंने देवीलाल को ऐसा रास्ता सुझाया जिसे चंद्रशेखर की बात भी रह जाए और बी पी सिंह प्रधानमंत्री भी बन जाए।
Mandal Commission

संसद का ड्रामा

           चौधरी देवीलाल चौटाला खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे लेकिन वो यह समझते थे कि उस वक्त हवा वी पी सिंह के पक्ष में थी। लिहाजा उन्होंने कुलदीप नैयर की बात मान ली। संसद में होने वाले इस नाटक की खबर VP सिंह तक भी पहुंच गई थी। लोकसभा में जब नेता का चयन हो रहा था तो एक ड्रामा स्क्रिप्ट के मुताबिक चला। प्लान के तहत संसदीय दल की बैठक में जब सांसद मधु दंडवते ने देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा तो चौधरी देवी लाल बोलने के लिए खड़े हुए। उन्होंने कहा कि "चंद्रशेखर और मधु दंडवते की तरफ से उनका नाम लेने के लिए और उन्हें यह सम्मान देने के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया, लेकिन मैं समझता हूं कि मुझसे भी ज्यादा बेहतर इस पद के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह होंगे और मैं अपनी तरफ से उनका नाम लेता हूं। सारा सदन विश्वनाथ प्रताप सिंह का स्वागत करें।" तालियों की गड़गड़ाहट के बीच राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह की ताजपोशी का रास्ता साफ हो गया।

अलगाव की शुरुआत

           लेकिन चंद्रशेखर को यह बात नागवार गुजरी, उन्होंने कहा "अगर उन्होंने अपनी तरफ से यह प्रस्ताव रखा है तो मैं इसका विरोध नहीं करता हूं, लेकिन मेरे अपने रिजर्वेशन है।" तब जनता दल के सांसद रहे संतोष भारतीय के अनुसार चंद्रशेखर को इस ड्रामे की कानोंकान भनक तक नहीं थी इस पूरे घटनाक्रम के बाद 2 दिसंबर 1989 को राजा विश्वनाथ प्रताप सिंह देश के प्रधानमंत्री बने। उनके विरोधियों ने उन पर प्रधानमंत्री बनने के लिए धोखे का आरोप लगाया। बाद में दिए एक इंटरव्यू में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कहा कि "धोखे से बने या धक्के से बने लेकिन हम प्रधानमंत्री बने।" 

देवीलाल की बगावत

           सरकार को बने अभी 2 महीने ही नहीं हुए थे कि चौधरी देवीलाल को लगने लगा कि उनके और प्रधानमंत्री वीपी सिंह के बीच में एक पर्दा आने लगा है, यह पर्दा अरुण नेहरू के नाम का था। अरुण नेहरू की वजह से चौधरी देवीलाल और वी पी सिंह के बीच में दूरियां बढ़ने लगी। वीपी सिंह और चौधरी देवीलाल चौटाला के बीच में दूरियां बढ़ने का दूसरा कारण बने ओम प्रकाश चौटाला। उप प्रधानमंत्री बनने के बाद चौधरी देवीलाल ने हरियाणा के मुख्यमंत्री के पद पर अपने बेटे ओमप्रकाश चौटाला को बैठा दिया था।

ओमप्रकाश चौटाला 

           ओमप्रकाश चौटाला उस समय हरियाणा विधानसभा के सदस्य नहीं थे। इसलिए उन्होंने रोहतक की महम विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा। 27 फरवरी 1990 को हुए इस चुनाव में 8 मतदान केंद्रों पर धांधली की शिकायतें आई। 28 तारीख को दोबारा मतदान मतदान हुआ। चौटाला किसी भी हाल में यह चुनाव हारना नहीं चाहते थे। इसलिए उनके समर्थकों ने फिर से बूथ कैप्चरिंग की। चौटाला के खिलाफ चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार के समर्थकों ने इनका विरोध किया।
           इस झड़प में फायरिंग हुई और इसमें कई लोग मारे गए। चौटाला पर चुनाव जीतने के लिए धांधली करने और हिंसा का सहारा लेने के आरोप लगे। तब वीपी सिंह के कहने पर ओमप्रकाश चौटाला को मुख्यमंत्री पद छोड़ना पड़ा। ओमप्रकाश चौटाला को मुख्यमंत्री पद से हटाने पर चौधरी देवीलाल वीपी सिंह से नाराज हो गए, लेकिन जवाब देवीलाल ने जल्दी ही दिया। कुछ ही दिनों बाद ओमप्रकाश चौटाला ने दूसरी सीट से चुनाव जीता और देवीलाल ने रातों रात  फिर हरियाणा का मुख्यमंत्री बनवा दिया।

केंद्र सरकार में फुट

           देवीलाल की इसी मनमानी से अरुण नेहरू को देवीलाल की खिलाफत करने का एक और मौका मिल गया। चौधरी देवीलाल चौटाला पर दबाव बनवाने के लिए अरुण नेहरू ने कुछ और मंत्रियों के साथ मिलकर इस्तीफा दे दिया। उधर सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी पार्टियों ने भी चौटाला को दोबारा मुख्यमंत्री बनाए जाने पर आपत्ति जताई। लेकिन VP सिंह अब तक इस मामले पर खामोश थे, पर जब चारों तरफ से उन पर दबाव बढ़ने लगा तो बी पी सिंह ने अपने मंत्रियों का इस्तीफा स्वीकार करने की वजह खुद वी पी सिंह ने अपना इस्तीफा देने की पेशकश कर दी। बी पी सिंह का इस्तीफा देने की पेशकश को देखते हुए ऐसा लगा कि सरकार गंभीर राजनीतिक दुविधा में फंस गई है, लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं था। ऐसा बी पी सिंह ने देवीलाल को पार्टी से अलग-थलग करने के लिए सोच समझ कर किया। पार्टी ने VP सिंह का इस्तीफा नामंजूर कर दिया पर चौधरी देवीलाल पर इतना दबाव पड़ा कि उनके बेटे को मुख्यमंत्री की कुर्सी एक बार फिर छोड़नी पड़ी।
Mandal Commission

टूटती वी पी सिंह सरकार 

देवीलाल की बर्खास्तगी 

            अब देवीलाल कहां चुप बैठने वाले थे। उन्होंने वी पी सिंह को, वीपी सिंह की ही एक पुरानी चिट्ठी भेजी। जिसमें वी पी सिंह ने अरुण नेहरू पर बोफोर्स के मामले पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे। अब यह तो बहुत बड़ी बात हो गई, क्योंकि उस वक्त अरुण नेहरू ना ही वी पी सिंह की सरकार में थे और उनकी कैबिनेट में भी नहीं थे और उसी चिट्ठी के आधार पर देवीलाल ने अरुण नेहरू के खिलाफ कार्रवाई की जोर से मांग उठाई।
           लेकिन वह चिट्ठी नकली निकली और एक बार फिर देवीलाल अपने ही जाल में फंस गए। करीब ढ़ाई घंटे तक वीपी सिंह और देवीलाल के बीच में बैठक हुई जिसमें देवीलाल के लिए यह जवाब दे पाना मुश्किल हो रहा था कि वह चिट्ठी उन्हें कहां से मिली। बैठक में मौजूद अन्य मंत्रियों के रुख से यह साफ हो गया था कि अब देवीलाल चौटाला का उप-प्रधानमंत्री बने रहना नामुमकिन होगा। आखिरकार देवीलाल को मंत्रिमंडल से बर्खास्त कर दिया गया।


           देवीलाल चौटाला यह समझते थे कि उन्होंने वी पी सिंह को प्रधानमंत्री बनाया है तो वह उन्हीं के कहने पर चलें और उन्हीं रवैया से चले जिस रवैया से देवीलाल सरकार चलाना चाहते थे। लेकिन वीपी सिंह इसके लिए तैयार नहीं थे। करीब 8 महीने पुरानी राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार से अब उपप्रधानमंत्री देवीलाल चौटाला को बर्खास्त कर दिया गया था।  

वी पी सिंह का उभरता मंडल प्रेम 

           यह सरकार के लिए एक संकट की घड़ी थी। सरकार अब कभी भी गिर सकती थी। वीपी सिंह तलवार की धार पर चल रहे थे। उनकी सरकार का गिरना तय था और इस बात का अंदाजा वीपी सिंह से ज्यादा और भला किसे हो सकता था। अब इस हाल में VP सिंह करते भी तो क्या करते? ऐसी परिस्थितियों में वीपी सिंह ने अपना मास्टर स्ट्रोक चलाया।

मंडल आयोग 

           6 अगस्त 1990 को एक कैबिनेट मीटिंग हुई। कैबिनेट बैठक शुरू होने के बाद में वीपी सिंह ने मंत्रियों को बताया कि यह बैठक मंडल कमीशन के लिए। मंडल कमीशन पर चर्चा के लिए है जब मंत्रियों ने उन्हें बताया कि उनके लिए कोई पहले से सुझाव नहीं दिया गया। उन्हें थोड़ा टाइम चाहिए ताकि वो इस पर कुछ राय बना सकें। शतरंज के शौकीन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजनीति की बिसात पर मंडल का मोहरा आगे चला दिया। कैबिनेट की इस बैठक के एजेंडे में मंडल नहीं था। लेकिन वीपी सिंह ने अचानक उस पर चर्चा शुरू कर दी। जनता दल यूनाइटेड के पुर्व अध्यक्ष शरद यादव और लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष रामविलास पासवान, तब वीपी सिंह के साथ थे और तब उस बैठक में शामिल थे।

मंडल आयोग तभी क्यों?

          आखिर ऐसा क्या हो गया था कि मंडल लागू करने के लिए वीपी सिंह इतने उतावले थे? इसके पीछे एक वजह बताई जाती है  9 अगस्त को होने वाली देवीलाल की रैली। दिल्ली के बोट क्लब में होने वाली इस रैली में देवीलाल के साथ तब BSP के अध्यक्ष कांशीराम भी शामिल होने वाले थे। तो क्या किसान और पिछड़े वर्ग के नेताओं की इस रैली को काटने के लिए वी पी सिंह ने मंडल का ब्रह्मास्त्र चला?
           बी पी सिंह ने अचानक मंडल क्यों लागू किया इसकी एक वजह शरद यादव के मुताबिक उन्होंने वी पी सिंह पर मंडल आयोग की सिफारिशों को तुरंत लागू करने का दबाव डाला था। वो बताते हैं की 6 तारीख की कैबिनेट मीटिंग के 1 दिन पहले उनकी और बी पी सिंह की लंबी बातचीत चली। शरद यादव के अनुसार उन्होंने दबाव डाला कि या तो मंडल कमीशन की सिफारिशें अभी लागू हो अन्यथा वह देवीलाल चौटाला के साथ अपनी दोस्ती निभाएंगे। शरद यादव के अनुसार वीपी सिंह ने 15 अगस्त को मंडल आयोग लागू करने की घोषणा करने का वादा किया। लेकिन उन्होंने 9 अगस्त से पहले लगाने का दबाव डाला। 
           वीपी सिंह यह तो मानते हैं कि उन पर मंडल आयोग लागू करने के लिए जनता दल के कई सांसदों ने दबाव डाला, लेकिन वो इस बात से इनकार करते हैं कि यह फैसला किसी राजनैतिक वजह से अचानक लिया गया। 

क्या था मंडल आयोग?

           दरअसल मंडल आयोग की रिपोर्ट कई सालों से धूल चाट रही थी। मंडल आयोग का गठन 1979 में मोरारजी देसाई की सरकार ने किया था। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में 6 सदस्य आयोग को यह जिम्मा सौंपा गया कि वह समाज में पिछड़े वर्गों की पहचान कर उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने का खाका तैयार करें। आयोग ने पिछड़े वर्गों की पहचान के लिए जातियों को पैमाना बनाया और इसी आधार पर आरक्षण की सिफारिश की।
           लेकिन जब दिसंबर 1980 में आयोग ने अपनी सिफारिशें सरकार को सौंपी तो उस समय मोरारजी देसाई की सरकार गिर चुकी थी। 10 साल बाद वी पी सिंह ने इसी रिपोर्ट के आधार पर संसद में यह ऐतिहासिक घोषणा की। उड़ीसा के बीजू पटनायक अपनी ही सरकार के फैसले पर सवाल उठा रहे थे। हालांकि मंडल के समर्थक और तत्कालीन कैबिनेट मंत्री रामविलास पासवान का कहना है कि बीजू तो शुरू मे यह जानते भी नहीं थे कि मंडल क्या है। मंडल आयोग की सिफारिशों में देशभर में कुल 3743 जातियों और वर्गों को अन्य पिछड़ा वर्गों यानी ओबीसी की श्रेणी में रखा गया। रिपोर्ट के मुताबिक इनकी सामूहिक संख्या उस वक्त देश की कुल आबादी के 50% से भी ज्यादा थी यानी राजनीतिक पार्टियों के लिए एक बहुत बड़ा वोट बैंक।

मंडल आयोग की आलोचना 

            सवाल यह उठा कि कि मंडल आयोग ने अपनी गणना का आधार सन 1931 की जनगणना को बनाया था और लागू किया गया 1990 में तो क्या बी पी सिंह ने यह जरूरी नहीं समझा कि 60 साल पहले के आंकड़ों पर आधारित सिफारिशों को लागू करने से पहले उस पर एक बार फिर विचार किया जा सके। लेकिन VP सिंह कोई भी तर्क सुनने को तैयार नहीं थे। संसद में घोषणा के 1 हफ्ते के भीतर ही सरकार ने अधिसूचना जारी कर सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि अनुसूचित जाति और जनजातियों के लिए पहले से मौजूद 22.5 प्रतिशत आरक्षण को मिलाकर अब कुल नौकरियों का 49.5 प्रतिशत नौकरियां एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षित होंगी।

सियासत पर भारी पड़ा मंडल आयोग 

           VP का यह दाव उनके राजनीतिक विरोधियों पर भारी पड़ा। किसी के लिए भी इस फैसले का विरोध करना मुश्किल हो रहा था। लेकिन उत्तर भारत के कई शहरों में इसकी तीखी प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई थी। इसके विरोध में सबसे ज्यादा मे वो सामान्य श्रेणी के छात्र थे, जो सरकारी नौकरियों के भरोसे अपना भविष्य संजो रहे थे। उन्हें लगा कि सरकार उनका हक छीन रही है। छात्र सड़कों पर उतर आए। उस वक्त हरीराम सिंह दिल्ली में मंडल विरोधी छात्रों के आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। लखनऊ, पटना और जयपुर जैसे शहरों की सड़कों पर आए दिन इस तरह के प्रदर्शन होने लगे। हरियाणा के कई शहरों में ऐसे प्रदर्शनों में के दौरान हिंसा हुई। दिल्ली में भी आरक्षण के विरोध में कई रैलियां हुई, धरने घेराव हुए, बसों के शीशे तोड़े गए।

मंडल आयोग पर सुलगा समूचा उत्तर भारत 

जोर पकड़ता छात्र आंदोलन 

           इन छात्रों का गुस्सा देखते हुए राजनीतिक दलों ने भी अपना सुर बदला। बीजेपी ने आरक्षण का वादा आर्थिक रूप से पिछड़े हुए लोगों को देने का मांग की, कांग्रेस ने वीपी सरकार पर देश में जातीय हिंसा भड़काने का आरोप लगाया। मंडल कमीशन पर संसद में गर्मागर्म बहस हो रही थी। उसी दौरान दिल्ली में छात्रों की भीड़ पर दिल्ली पुलिस लाठीचार्ज लाठीचार्ज कर रही थी। आए दिन पुलिस और छात्रों के बीच में ऐसी झडपे बढ़ती जा रही थी।
           कुछ छात्र भूख हड़ताल और धरनो से अपना विरोध जता रहे थे। इन्हीं छात्रों में से एक था, दिल्ली के देशबंधु कॉलेज का राजीव गोस्वामी। वह करीब 9 दिनों तक धरने पर बैठा रहा। फिर उसने ऐसा किया जो किसी ने सोचा भी नहीं था। राजीव ने आत्मदाह किया, लोग कुछ समझ पाते उससे पहले राजीव आग की लपटों से घिर चुका था। जो हुआ उसने देश को हिलाकर रख दिया। इसके बाद तो उस शहर शहर में आत्मदाह के प्रयास होने लगे। बल्लभगढ़, मेरठ, पटना, हिसार और अंबाला जैसे शहरों में आए दिन ऐसी घटनाओं की रिपोर्टिंग होती रही। उस समय गुस्साए छात्रों ने जगह-जगह तोड़फोड़ और आगजनी शुरू कर दी। दिल्ली के सरोजिनी नगर और आईएनए मार्केट में भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस ने फायरिंग की, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई। यूनिवर्सिटी और एम्स के आसपास के इलाकों में आम लोगों के आने जाने का लगभग नामुमकिन हो गया था।
Indian political moves



मंडल आयोग ने बदली भातीय राजनीति की दिशा

           छात्रों का गुस्सा प्रधानमंत्री वीपी सिंह के खिलाफ बढ़ता ही जा रहा था। लेकिन प्रधानमंत्री वीपी सिंह जिन्हें अब मंडल मसीहा कहा जाने लगा था, अपने फैसले से बिल्कुल भी पीछे हटने को तैयार नहीं थे। इस बीच 2 छात्रों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और सरकार के फैसले को रद्द करने की अपील की। सरकार को बाहर से समर्थन दे रही भारतीय जनता पार्टी के लिए यह एक दोहरी चुनौती थी।
             भाजपा नहीं चाहती थी कि उसके उच्च वर्ग के वोट बैंक को यह लगे कि भाजपा वी पी सिंह सरकार को समर्थन देने के साथ-साथ मंडल आयोग को भी समर्थन दे रही है, साथ में वह निम्न मध्यम वर्ग एवं मध्यम वर्ग हिंदुओं के बीच में यह संदेश भी नहीं देना चाहती थी कि भाजपा उनके आरक्षण के खिलाफ है। इससे उनका हिंदू वोट बैंक बंट जाता जिसमें उच्च मध्यम वर्ग के हिंदू, मध्यम वर्ग के हिंदू और निम्न मध्यम वर्ग के हिंदू सब शामिल थे। ऐसे हालातों से निपटने के लिए भाजपा ने अपनी चाल चली। अब भाजपा ने राम का नाम लिया। 31 अक्टूबर को होने वाली अयोध्या में कारसेवकों की रैली, आडवाणी की रथयात्रा यह सब मंडल कमीशन की दौड़ में भाजपा की चाल ही थी।
           भारतीय राजनीति अब मंडल के फेर से निकलकर कमंण्डल की ओर जा रही थी। 

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