Sunday 12 November 2017

बाबरी मस्जिद विध्वंस

By Anuj beniwal
babri masjid           6 दिसंबर 1992 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह थे। जिस इमारत अथवा विवादित ढांचे को गिराने की जिम्मेदारी वो अपने ऊपर ले रहे थे उसकी नींव 1528 ईस्वी में मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने रहे थे।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस जगह पर पहले मंदिर हुआ करता था। जो भगवान राम के जन्म स्थल पर बना था और इसे ही तुड़वा कर मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीर बाकी ने यहां एक मस्जिद नुमा इमारत बना दी थी। उपलब्ध दस्तावेजों के मुताबिक इस जगह को लेकर 1853 में पहली बार दंगा हुआ। जबकि 1885 में महंत रघुवर दास ने फैजाबाद जिला कोर्ट में पहली बार अपील दायर की। जिला जज ने अपने फैसले में कहा था कि चूंकि मस्जिद का निर्माण 356 साल पहले हो चुका है, लिहाजा अब इस पर फैसला देना मुनासिब नहीं होगा।

विध्वंस के कारणों का सुत्रपात:

               आजाद भारत में बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि विवाद पहली बार 21-22 दिसंबर 1949 को हुआ। 21-22 दिसंबर 1949 की रात को विवादित ढांचे के अंदर राम लला की मूर्ति प्रकट होने का दावा किया गया। पूरे अयोध्या में इसको लेकर चर्चा होने लगी। इस घटना के बाद 23 दिसंबर 1949 को फैजाबाद थाने में इस घटना की रिपोर्ट दर्ज हुई। FIR का नंबर था 167/49। 21-22 दिसंबर की रात को हुई इस घटना के बाद अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों में गहमागहमी बढ़ गई। प्रशासन ने विवादित स्थल के आस पास आवाजाही बंद कर दी। इसके खिलाफ गोपाल चंद विशारद 1950 मेंअदालत चले गए। आगे चलकर स्वयं भगवान राम को ही इस न्यायालयीक प्रकरण में वादी बना दिया गया। बाद में मुस्लिम पैरोकार भी अदालत चले गए। उनके अनुसार 21-22 दिसंबर की रात को मूर्ति प्रकट नहीं हुई थी बल्कि उसे चोरी छुपे वहां स्थापित कर दिया गया था। इस प्रकरण को लेकर कुल मिलाकर चार अलग-अलग मामले नयायालय में आए। दरअसल पूरा मामला अयोध्या के प्लॉट नंबर 583 के मालिकाना हक को लेकर था, जहां विवादित ढांचा बना हुआ था।
            मामला अदालत में चल ही रहा था कि 1986 में एक बड़ा मोड़ आया। जिस जगह पर मूर्ति रखी गई थी अथवा प्रकट होने का दावा किया गया था, उस जगह पर लगा ताला फैजाबाद जिला अदालत के आदेश पर खोल दिया गया। उस समय राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री थे। हालांकि फैसला अदालत का था लेकिन सरकार ने जिस रफ्तार से फैसले को अमल में लाया उस पर कई सवाल खड़े हुए। फैजाबाद जिला प्रशासन ने जिला अदालत के फैसले को 40 मिनट में ही लागू कर दिया और ताला खोलने की इस घटना का दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण किया गया।
             ताला खोलने का फैसला राजीव गांधी सरकार ने शाह बानो केस में हुई अपनी किरकरी के बाद लिया था, जिसमें उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कानून बनाकर पलट दिया था। शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने एक बुजुर्ग मुस्लिम महिला शाह बानो को तलाक के बाद उसके पति द्वारा शाहबानो और उसके बच्चों के भरण पोषण के लिए भत्ता देने का आदेश दिया था। जिसका कुछ मुस्लिम संगठनों ने पुरजोर विरोध किया। इस विरोध को राजीव गांधी सरकार झेल नहीं पाई और कानून बनाकर अदालत के फैसले को पलट दिया गया। राजीव गांधी सरकार के इस फैसले से उन पर आरोप लगा कि वो मुसलमानों को बेवजह रिझा रहे हैं। इसी फैसले के प्रत्युत्तर में विवादित ढांचे के ताले खुलवाने का फैसला लिया गया था। ताला खोलने की घटना के बाद हिंदूवादी संगठनों ने मंदिर निर्माण आंदोलन को और तेज कर दिया।
             इसी बीच 1989 के फरवरी महीने में एक और बड़ी घटना हुई। इलाहाबाद में इस समय कुंभ चल रहा था और एक बड़ी घोषणा हुई। घोषणा यह थी कि ठीक 9 महीने बाद नवंबर के महीने में मंदिर का शिलान्यास किया जाएगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश के कोने कोने में शिला पूजन का कार्यक्रम होने लगे। शिला पूजन कार्यक्रम में देशभर से ईंटें अयोध्या आने लगी। जिनपर "राम-राम" लिखा हुआ था और कहा गया कि इन्हीं ईंटों से राम मंदिर का निर्माण किया जाएगा। साफ था धार्मिक भावनाएं अपने चरम पर थी। विश्व हिंदू परिषद की देखरेख में पूरे देश में शिला पूजन कार्यक्रम और शिला पूजन जुलूस निकाले गए। इन इंटों को बड़ी मात्रा में अयोध्या लाया जाने लगा।
            इसी बीच अक्टूबर 1989 को विश्व हिंदू परिषद के शीर्ष नेताओं ने तत्कालीन गृह मंत्री बूटा सिंह से मुलाकात की और गृहमंत्री से आश्वासन मांगा की शिलान्यास कार्यक्रम में किसी तरह की कोई रुकावट अथवा बाधा नहीं होगी और कार्यक्रम तयशुदा तरीके से होगा। आरोप लगा कि कांग्रेस सरकार वीएचपी जैसे संगठनों के हिंदू वादी दृष्टिकोण से अपने आप को जोड़ना चाहती थी और चुनाव में यह दर्शाना चाहती थी कि वह सिर्फ मुस्लिम परस्त पार्टी ना होकर एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी है। बहरहाल गृह मंत्री बूटा सिंह और तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की मौजूदगी में शिलान्यास कार्यक्रम संपन्न हुआ।
            कई मुसलमान संगठनों ने शिलान्यास कार्यक्रम का विरोध किया लेकिन इस विरोध को दरकिनार कर दिया गया। शिला पूजन कार्यक्रम और शिला पूजन जुलूसों से देश का सांप्रदायिक माहौल बहुत बिगड़ चुका था। साल 1989 में ही देशभर में 706 सांप्रदायिक दंगे हुए, जिनमें कुल सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1176 जाने गई। दंगों में सबसे ज्यादा रक्तपात बिहार के भागलपुर में हुआ। यहां दंगे की शुरुआत शिला पूजन जुलूस के दौरान ही हुई थी। दंगों के 2 दिन बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भागलपुर का दौरा किया। भागलपुर में लगभग 2 महीने तक दंगे चलते रहे और इन दंगों में लगभग एक हजार के करीब लोगों ने जान गंवाई।
             इसी बीच 3 नवंबर 1989 को राजीव गांधी फैजाबाद पहुंचे। यहीं से उन्होंने अपनी गद्दी बचाने का अभियान शुरू किया। इस भाषण में कुछ महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार थे, राजीव गांधी ने कहा था "आप हमें वोट दीजिए, हम रामराज्य वापस लाएंगे। मुझे भी हिंदू होने पर गर्व है.....।" राजीव गांधी के भाषण लिखने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर के अनुसार भाषण का स्थान और शब्द अंतिम समय पर बदल दिए गए थे। राजीव गांधी पहले पंचायती राज का नारा लेकर राजस्थान के नागौर से चुनाव अभियान शुरू करने वाले थे। 1989 के आम चुनावों से पहले राजीव गांधी बोफोर्स घोटाले से गिरे हुए थे। उन पर बोफोर्स तोप खरीद में घोटाले के आरोप लग रहे थे। उनकी सरकार में रक्षा और वित्त मंत्री रह चुके विश्वनाथ प्रताप सिंह उनकी पार्टी से अलग होकर भ्रष्टाचार और बोफोर्स जैसे मामलों पर उन को चुनौती दे रहे थे। लिहाजा राजीव गांधी ने अब हिंदुत्व की लाइन पकड़ ली थी, भ्रष्टाचार के मुद्दों के आगे राजीव गांधी की हिंदुत्व की गाड़ी नहीं चल पाई।
            कांग्रेस चुनाव हार गई और राष्ट्रीय मोर्चा की VP सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। सरकार को बाहर से समर्थन दे रही भारतीय जनता पार्टी पिछले आम चुनावों में मिली 2 सीटों से, इस बार अपना पकड़ा 88 सीटो तक पहुंचाने में सफल रही। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने दोनों पक्षों को आश्वासन दिया कि उन्हें कुछ समय दिया जाए ताकि मामले का कोई हल वो निकाल पाए। ऐसा कुछ हो पाता इससे पहले ही साधु-संतों ने 30 अक्टूबर 1990 से मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी। दूसरी ओर विश्वनाथ प्रताप सिंह के मंडल आयोग लागू करने के फैसले से बीजेपी को लगा की कहीं उसका सवर्ण वोट बैंक मंडल आयोग के लिए उसे जिम्मेदार ना माने।
            इसी उधेड़बुन में 25 सितंबर 1990 से लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ मंदिर से 10000 किलोमीटर लंबी रथ यात्रा आरंभ कर दी, जो अयोध्या तक जानी थी। शुरुआत में VP सरकार ने रथ यात्रा को रोकने की कोई कोशिश नहीं की। लालकृष्ण आडवाणी अब राम मंदिर निर्माण आंदोलन का एक बड़ा चेहरा बन गए थे। रथयात्रा को बिहार के समस्तीपुर में पहुंच चुकी थी। बिहार में उस समय राष्ट्रीय जनता दल के लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री थे, जो VP सरकार को समर्थन दे रहे थे। 23 अक्टूबर की सुबह लालकृष्ण आडवाणी को समस्तीपुर में गिरफ्तार कर लिया गया और अगले दिन भाजपा ने वीपी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिर गई। कांग्रेस के समर्थन से अब देश के नए प्रधानमंत्री बने थे चंद्रशेखर, लेकिन चंद्रशेखर सरकार भी ज्यादा नहीं चल पाई।
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विध्वंस के तात्कालिक कारण और नरसिंहा राव:

            1991 में देश में फिर से आम चुनाव हुए। इन चुनावों के प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की तमिलनाडु में हत्या कर दी गई। सहानुभूति ही सही लेकिन कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई और प्रधानमंत्री बने कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पीवी नरसिम्हा राव। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद नरसिंहा राव को विरासत में मिला था। अगर केंद्र की सत्ता कांग्रेस के हाथ में आई तो राम मंदिर आन्दोलन पर सवार बीजेपी कई राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में भाजपा की सरकारें बनी।
            उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार का नेतृत्व कर रहे थे राजस्थान के वर्तमान राज्यपाल कल्याण सिंह। कल्याण सिंह ने शपथ ग्रहण समारोह के दौरान ही यह कहा था कि "राम लला हम आएं है, मंदिर यहीं बनाएंगे।" शपथ ग्रहण समारोह के 15 दिन बाद ही कल्याण सिंह सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया और विवादित ढांचे की 2.77 एकड़ जमीन को अधिग्रहित कर लिया और इसे एक रुपए की लीज पर राम जन्मभूमि न्यास को दे दिया गया। मुस्लिम संगठनों ने इसका अदालत में विरोध किया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस पर स्टे लगा दिया और इससे भी बड़ी बात की विवादित ढांचा स्थल पर किसी भी पक्के निर्माण पर रोक लगा दी।
            मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पर विवादित ढांचे के आसपास सुरक्षा इंतजामों में ढील देने का दबाव बढ़ने लगा और इसका नतीजा भी जल्द ही सामने आने लगा। तत्कालीन उत्तर प्रदेश के डीजीपी प्रकाश सिंह के अनुसार सरकार राम मंदिर के हिमायती अफसरों को तरजीह देने लगी थी और फैज़ाबाद और उसके आसपास के क्षेत्रों में राम मंदिर समर्थक अफसरों की तैनाती की जाने लगी। सरकारी ट्रैक्टर से जमीन को समतल किया गया और 31 अक्टूबर को कुछ कारसेवक मस्जिद के ऊपर चढ़ गए और भगवा झंडा फहराने लगे। उन्हें रोकने टोकने वाला कोई नहीं था। इसी बीच दिल्ली में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की काउंसिल राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में मुख्यमंत्री कल्याण सिंह पहुंचे। उन्होंने कहा था हमने विवादित ढांचे के आसपास सुरक्षा बंदोबस्त और सख्त कर दिए हैं। ढांचे की सुरक्षा हमारी प्रमुख जिम्मेदारी है और इस पर किसी को भी नहीं चढ़ने दिया जाएगा। हम अदालती आदेशों को मानने के लिए बाध्य है।
            इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ढांचे के आसपास किसी भी पक्के निर्माण पर रोक लगा दी थी। जिसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में राम जन्मभूमि न्यास ने अपील दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ढांचे की सुरक्षा की संपूर्ण जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार की है और भूमि अधिग्रहण मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला मानने और उसकी अनुपालना करना कल्याण सिंह सरकार की जिम्मेदारी है। इन फैसलों के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपनी आगे की रणनीति में बदलाव किया। कल्याण सिंह सरकार ने विवादित ढांचे के आसपास आवाजाही और आसान कर दी। जब प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने विवादित ढांचे की सुरक्षा के लिए केंद्रीय बलों को भेजने की पेशकश की तो कल्याण सिंह ने इसके लिए मना कर दिया। लिहाजा नरसिंहाराव ने दोनों पक्षों से खुद बात करने की पेशकश की।
            इसी बीच विश्व हिंदू परिषद ने नई डेडलाइन दे दी। 9 जुलाई से कार सेवा पुनः शुरू करने की घोषणा कर दी गई। 9 जुलाई को अयोध्या में 50000 से 60000 कारसेवक छूट गए और उन्होंने कंक्रीट का चबूतरा बनाने का काम शुरू कर दिया। जब कल्याण सिंह से इस चबूतरे के निर्माण के बारे में पूछा गया जो कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले की अवमानना थी, तो कल्याण सिंह ने प्रारंभ में कहा कि हमें नहीं पता चबूतरा कौन बना रहा है और बाद में कहा कि अगर अब इस निर्माण कार्य को रोका गया तो व्यापक पैमाने पर दंगे भड़क सकते हैं। अब बीजेपी और संघ परिवार ने अपने आप को कार सेवा से अलग कर लिया और कहा कि केंद्र सरकार सीधे साधु-संतों से बात करें।
            भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं से प्रधानमंत्री नरसिंहा राव की वार्ता के दो दिन बाद ही साधु संतों का एक प्रतिनिधिमंडल प्रधानमंत्री से मिला। फैसले के मुताबिक कार सेवा और मंदिर निर्माण का कार्य 90 दिनों तक रोक लिया गया। नरसिंहा राव को अब यह विवाद सुलझाने के लिए 90 दिन का समय था। नरसिम्हा राव ने विवाद सुलझाने के लिए आखिरी गंभीर पहल की। गृहमंत्री SB चौहान और कुमार मंगलम की उपस्थिति में उन्होंने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी और विश्व हिंदू परिषद के नेताओं को एक मंच पर लाकर बातचीत करना शुरू किया। विश्व हिंदू परिषद के नेताओं का पक्ष था कि मंदिर में काले पत्थर के 14 स्तंभ लगे हैं, जिन पर हिंदू कलाकृतियां बनी हुई है। इनमें मानव चित्र, पशु पक्षियों के चित्र एवं यक्ष के चित्र एवं पूजा आदि के चित्र बने हुए है। मुस्लिम परंपराओं में मानव, पशु-पक्षियों अथवा अन्य किसी धार्मिक अनुष्ठानों के चित्रों की पूर्ण पाबंदी है। इससे यह स्पष्ट है कि वहां पर 11 वीं सदी का मंदिर था जिसे तोड़कर मीर बाकी ने वहां मस्जिद नुमा ढाचा बना दिया और इस नव निर्माण में उसने तोड़े गए मंदिर के अंशों का भी प्रयोग किया। जबकि मुस्लिम पक्ष का कहना था कि मस्जिद निर्माण के लगभग 50 साल के अंदर ही सुप्रसिद्ध तुलसीदास रचित "रामचरित्र मानस" की रचना हुई। स्वयं तुलसीदास रामचरितमानस में लिखते हैं कि उन्होंने यह रचना राम लला की जन्म स्थली अयोध्या में रहकर की है। अगर इस तरह का कोई निर्माण हुआ होता तो क्या तुलसीदास रामचरितमानस में इस घटना का एक बार भी जिक्र नहीं करते।
            इन सब हालातों के बीच में मसले ने एक नया मोड़ लिया। विश्व हिंदू परिषद के केंद्रीय मार्गदर्शक मंडल ने दिल्ली में धर्म संसद के आयोजन किया, तारीख थी 30 अक्टूबर 1992। इसमें वीएचपी ने वार्ता की एकतरफा विफलता की घोषणा कर दी एवं पुरानी मांगे दोहरानी शुरू कर दी। इसी धर्म संसद में घोषणा हुई कि 6 नवंबर 1992 से कार सेवा एवं मंदिर निर्माण का कार्य पुनः शुरू कर दिया जाएगा। इन हालातों में विश्व हिंदू परिषद और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के नेताओं के बीच में 8 नवंबर को पुनः वार्ता हुई एवं वार्ता की औपचारिक विफलता की घोषणा भी इसी दिन हो गई।
            इसी बीच केंद्रीय गृह सचिव माधव गोडबोले ने एक बड़ी कार्य योजना का प्रारूप तैयार किया। उन्होंने इस कार्य योजना के बारे में प्रधानमंत्री को बताया कि लगभग 20 हजार केंद्रीय बलों को अयोध्या में तैनात किया जाएगा। जिनमें कमांडो यूनिट भी होगी + ढांचे के आसपास की सुरक्षा व्यवस्था पर ध्यान रखेगी। इसमें बम स्क्वॉड और डॉग स्कॉड को भी तैनात किया जाएगा। इन बातों की जानकारी माधव गोडबोले ने अपनी किताब अनफिनिश्ड इनिंग में किया है। उनके अनुसार रेल, सड़क और विमान से किस तरह कंपनियों को भेजा जाना है, इस बारे में पूरी तैयारी कर ली गई थी। सेना को कटीले तार लगाने की ट्रेनिंग दी गई। कितने तंबू, हथियार, भोजन एवं अन्य सामग्रियों की आवश्यकता होगी, इसकी भी सूची बना ली गई थी। उन्होंने प्रधानमंत्री को बताया कि केंद्र आपात परिस्थिती में राज्य सरकार को बर्खास्त कर राज्य प्रशासन में दखल दे सकता है। इसकी अनुमति संविधान का अनुच्छेद 355 केंद्र सरकार को देता है। जब नरसिम्हा राव ने उनसे वापस पूछा कि इस कार्य योजना को कब तक लागू किया जा सकता है? तो गोडबोले ने उन्हें बताया कि लगभग 22 नवंबर अन्यथा 23 नवंबर को यह बंदोबस्त पूरा कर लिया जाएगा और 24 नवंबर को आप संसद में इसकी घोषणा कर सकते हैं। माधव गोडबोले के अनुसार प्रधानमंत्री नरसिंहा राव ने उन्हें इस योजना पर तत्काल कार्य करने की अनुमति दे दी।
            इसी बीच नरसिम्हा राव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को 18 और 19 नवंबर को बातचीत करने के लिए दिल्ली बुलाया। कल्याण सिंह ने यह सुझाव दिया कि अधिग्रहित जमीन पर हिंदुओं को मंदिर बनाने की इजाजत दे दी जाए और कहा कि मुसलमानों को विवादित स्थल से 15 से 20 किलोमीटर दूर मस्जिद बनाने के लिए मनाया जा सकता है। इसके लिए राज्य सरकार उन्हें जमीन आवंटित करके देगी एवं मस्जिद निर्माण कार्य में भी सहयोग करेगी। नरसिम्हा राव ने इस बात पर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी से विचारकरने के बाद कोई फैसला लेने का कहा। कल्याण सिंह ने नरसिम्हा राव को एक ओर सुझाव दिया कि वह इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमीन अधिग्रहण से संबंधित चल रहे मामले में कोर्ट से जल्द फैसले की अपील करें और नरसिम्हा राव को आश्वासन दिया कि उत्तर प्रदेश सरकार भी इस बाबत जल्द इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील करेगी। कल्याण सिंह ने यह आश्वासन भी दिया कि मंदिर निर्माण का कार्य और जमीन अधिग्रहण विवादित ढांचे से अलग रहेगी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि चूंकि किसी अभी तक मुसलमानों ने जमीन पर मालिकाना हक का दावा नहीं किया है तो कारसेवा की अनुमति देना गलत नहीं होगा। नरसिम्हा राव ने इस पर फैसला लेने के लिए कैबिनेट कमेटी में विचार करने का फैसला किया और यह मामला राजनीतिक मामलों की कैबिनेट कमेटी को सौंप दिया गया। 23 नवंबर को नरसिम्हा राव ने कल्याण सिंह के प्रस्ताव पर चर्चा करवाने के लिए राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाई। लेकिन हैरानी की बात यह रही कि खुद भाजपा ने ही इस बैठक का बहिष्कार कर दिया ।बीजेपी का कहना था कि इस मामले पर पहले भी पर्याप्त बातचीत हो चुकी है। लेकिन इसका कोई मतलब नहीं है और नरसिम्हा राव इस बैठक से सिर्फ मुसलमानों का तुष्टीकरण करना चाहते हैं।
            इससे आगे की घटनाओं का जिक्र माधव गोडबोले ने अपनी किताब में किया है। उनके अनुसार 25 नवंबर को प्रधानमंत्री ने यूपी की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने का फैसला कर लिया। 26 नवंबर को यूपी के राज्यपाल सत्यपाल रेड्डी दिल्ली पहुंचे। उन्हें एक दिन बाद 26 नवंबर को अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपनी थी, लेकिन 26 नवंबर को ही उत्तर प्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना हलफनामा दायर कर दिया। जिसमें उन्होंने विवादित ढांचे की सुरक्षा की संपूर्ण जिम्मेदारी ली थी। राज्यपाल ने प्रधानमंत्री को यह संदेश भिजवाया कि ऐसे हालातों में राज्य में आपातकाल लगाना सही नहीं होगा। अब सारी योजनाएं धरी की धरी रह गई। बहरहाल यूपी की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने का फैसला तो रद्द हो चुका था। लेकिन अब सबको इंतजार था इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमीन अधिग्रहण पर आने वाले फैसले की।
babri masjid            बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी किताब "माई कंट्री माई लाइफ" में लिखा है कि अगर कोर्ट जमीन अधिग्रहण के मामले को वैध ठहरातीतो संपूर्ण 2.77 एकड़ जमीन पर राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ हो जाता और अगर अदालत जमीन अधिग्रहण को अवैध ठहराती तो राम जन्मभूमि न्यास अपने हिस्से की जमीन पर मंदिर बनवाने के लिए स्वतंत्र होता। दोनों ही परिस्थितियों में कारसेवकों का विवादित ढांचे से कोई मतलब ही नहीं रहता। मैं, अटल बिहारी वाजपेई, संघ के कई बड़े नेता और साधु संत इस मामले में कई बार प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव से मिले और उनसे अपील की। लेकिन उन्होंने एक बार भी उन्हें यह आश्वासन नहीं दिया कि वो इलाहाबाद हाईकोर्ट में फैसला जल्द सुनाने की अपील करेंगे। बाद में दिए गए एक इंटरव्यू में अटल बिहारी वाजपेई ने भी कुछ इसी तरह के आरोप लगाते हुए कहा था कि अगर उस समय अदालत फैसला दे देती तो कम से कम, जिस भूमि पर विवाद नहीं था और नारायण दत्त तिवारी के समय जो शिलान्यास हुआ था। कम से कम वहां मंदिर बन जाता और विवादित ढांचे को कोई चोट नहीं पहुंचती।
            नरसिम्हा राव की सरकार के लिए पशोपेश की बात मंदिर का नक्शा था। प्रस्तावित नक्शे को विश्व हिंदू परिषद ने तैयार किया था। इसमें मंदिर का गर्भगृह विवादित ढांचा ही था। इधर राजनीतिक गलियारों में यह गर्मागर्म बहस का मुद्दा बना हुआ था, तो वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट फैसले की तारीख टालता जा रहा था। पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला 30 नवंबर 1992 को देना था। जिसे 4 दिसंबर तक के लिए टाल दिया और 4 दिसंबर को फैसले की तारीख को 11 दिसंबर तक के लिए टाल दिया। उधर लाखों की तादाद में कारसेवक अयोध्या में इकट्ठे हो रहे थे।

बाबरी मस्जिद विध्वंस:

             बाबरी मस्जिद विध्वंस से 1 दिन पहले 5 दिसंबर 1992 को लखनऊ में लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेई ने बड़ी रैली की। वाजपेई ने जमीन समतल करने की बात यही कही थी। इस बहुचर्चित भाषण का कुछ अंश इस प्रकार था- यह ठीक है कि अदालत ने कहा है, कि जब तक लखनऊ की बेंच फैसला नहीं दे देती है आप वहां कोई पक्का निर्माण नहीं करेंगे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि आप वहां भजन कर सकते हैं, कीर्तन कर सकते हैं, लेकिन भजन अकेले नहीं होता है। भजन सामूहिक होता है, कीर्तन में तो और अधिक लोग लगते हैं। भजन और कीर्तन खड़े-खड़े नहीं हो सकता है। कब तक खड़े रहेंगे? वहां नुकीले पत्थर निकले हैं, उन पर तो कोई नहीं बैठ सकता। जमीन को समतल करना पड़ेगा, बैठने लायक बनाना पड़ेगा। यज्ञ का आयोजन होगा तो कुछ ना कुछ निर्माण तो होगा ही, कम से कम बेदी तो बनेगी। इसी रैली में आडवाणी ने कहा था कि आज उत्तर प्रदेश में शासन है, कल्पना है कि कल देश पर भी शासन हो। लेकिन हम अपने संकल्प से नहीं चूकेंगे। हम अपने संकल्प पर कटिबद्ध रहेंगे। अपने संकल्प के लिए हमें बलिदान देना होगा तो बलिदान देंगे, त्याग करना होगा तो त्याग करेंगे और सरकार की बलि देनी होगी तो वह भी देंगे। लेकिन उत्तरदायित्व की भाषा नहीं छोड़ेंगे, उत्तरदायित्व का आचरण नहीं छोड़ेंगे।
            एक तरफ अटल-आडवाणी की जोड़ी मंदिर निर्माण के संकल्प पर कटिबद्ध थी, तो दिल्ली में नरसिंहाराव दोहरे दबाव में थे।
            आखिर 6 दिसंबर 1992 का दिन आ गया। कार सेवा का मुहूर्त दोपहर 12:15 बजे का था। पहले पूजन और उसके बाद साकेतिक कारसेवा इस तरह का प्रस्ताव उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने हलफनामे में सुप्रीम कोर्ट को बताया था। सुबह से ही लगभग 200000 कारसेवक अयोध्या में जुटे हुए थे। प्रारंभ में सब कुछ सामान्य रूप से हो रहा था। धीरे-धीरे भीड़ बढ़ती गई। व्यवस्था बनाए रखने के लिए संघ के स्वयंसेवक पुलिस प्रशासन की मदद कर रहे थे। धीरे धीरे भीड़ उग्र होती गई और इतने बड़े जनसैलाब को नियंत्रित कर पाना पुलिस और प्रशासन के बस से बाहर होता नजर आने लगा। लगभग 11:30 बजे के आसपास कुछ युवक विवादित ढांचे की तरफ बढ़े। लगभग 12:00 बजे एक युवक बाबरी मस्जिद के ऊपर चढ़ गया। ठीक बाद एक और युवक ने बाबरी मस्जिद के गुंबद पर  भगवा ध्वज लहरा दिया। देखते ही देखते कारसेवकों का उन्माद चरम पर पहुंच गया और भारी संख्या में कारसेवक बाबरी मस्जिद को तोड़ने में जुट गए।
             एक तरफ कारसेवक बाबरी मस्जिद गिराने में लगे थे, तो दूसरी तरफ मंच पर विश्व हिंदू परिषद के नेताओं के साथ साथ भारतीय जनता पार्टी के लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, प्रमोद महाजन, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा और विजय राजे सिंधिया जैसे नेता मौजूद थे। देखते ही देखते कारसेवकों की बहुत बड़ी संख्या बाबरी मस्जिद को तोड़ने में लग गई। दोपहर 12:30 से 1:00 बजे के बीच में बाबरी मस्जिद का बीच वाला मुख्य गुंबद गिरा दिया गया। इस गुंबद को गिराने के बाद वहां पर नारे लग रहे थे राम नाम सत्य है बाबरी मस्जिद ध्वस्त है।
            जब अयोध्या में यह सब हो रहा था तो दिल्ली में देश के प्रधानमंत्री क्या कर रहे थे? उस समय नरसिम्हा राव सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह के अनुसार नरसिम्हा राव ने स्पष्ट आदेश दिए थे कि उन्हें कोई कुछ ना बोले और वह अकेले थे और किसी भी कीमत पर उन्हें तंग ना किए जाने का आदेश था। जबकि केंद्रीय गृह सचिव और वार्ता कराने में लगी IPS किशोर कुणाल का बयोरा अलग है। उनके अनुसार हर आधे घंटे में उन्हें सारी रिपोर्ट दी जा रही थी और यह रिपोर्ट स्वयं प्रधानमंत्री को दी जा रही थी ना कि प्रधानमंत्री कार्यालय को। 6 दिसंबर को प्रधानमंत्री अपने निवास पर ही थे और तब के अधिकारियों के अनुसार उन्हें पल-पल की सूचना मिल रही थी। तो अब सवाल यह भी उठता है कि उन्होंने विध्वंस को रोका क्यों नहीं? बाद में पत्रकार शेखर गुप्ता को एक इंटरव्यू में उन्होंने इस बारे में बताया। शेखर गुप्ता के अनुसार उन्होंने कहा कि जो लोग मस्जिद तोड़ रहे थे, वो राम राम बोल रहे थे और मेरी सेनाएं जो वहां तैनात थी, अगर वह किसी पर गोली चलाती, तो वह भी क्या बोलती राम-राम ही तो बोलती और अगर दोनों राम-राम बोलने वाले मिल जाते तो और दूसरी बात कि मैं यूपी की कल्याण सिंह सरकार को ही बर्खास्त कर देता। लेकिन केंद्र को प्रशासन में सक्रिय दखल लेने में 24 से 36 घंटे लग जाते और तब तक वहां शून्य की स्थिति रहती और ऐसे हालातों में किसी की उत्तरदायित्व की भी समीक्षा नहीं की जा सकती थी। क्योंकि भाजपा सरकार साफ कह सकती थी कि हमें सरकार से निकाल दिया गया इसलिए यह सब कुछ हुआ।
            वहीं राम मंदिर निर्माण आंदोलन को परवान चढ़ाने वाले लालकृष्ण आडवाणी 6 दिसंबर को क्या कर रहे थे? इस बारे में दो अलग-अलग ब्यौरे हमें मिलते हैं। अपनी किताब में लालकृष्ण आडवाणी लिखते हैं मैं राम कथा कुंज पर बने मंच पर अन्य नेताओं के साथ मौजूद था। सुबह 10:00 बजे कुछ कारसेवक विवादित ढांचे के गुंबद पर चढ़ गए। मैंने खुद अपनी आंखों से देखा। उन से नीचे उतरने की अपील की लेकिन उन पर कोई असर ही नहीं पड़ा। उन्होंने गुंबद को तोड़ना शुरू कर दिया। मैंने विजयाराजे सिंधिया और उमा भारती से अपील करने को कहा, लेकिन उसका भी कोई असर नहीं हुआ। उमा भारती वहां गई और वापस आकर कहा कि कारसेवक मराठी बाल कर रहे हैं। तब मैंने प्रमोद महाजन से वहां जाने को कहा, प्रमोद ने वापस आकर कहा कि कारसेवक मान नहीं रहे है। मैंने अपनी सुरक्षा में लगी महिला पुलिसअधिकारी से मुझे वहां ले जाने को कहा लेकिन उसने सुरक्षा कारणों से मना कर दिया। मैं फिर वहां से मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से बात करने के लिए टेलीफोन की तलाश में इधर-उधर निकला। बहुत खोजने पर टेलीफोन तो मिला लेकिन मेरा मुख्यमंत्री से संपर्क नहीं हो सका। तभी मैंने सुना कि पहला गुंबद गिरा दिया गया है। मैं वापस भागा। स्टेज पर मौजूद सभी लोग स्तब्ध थे। वहीं नीचे कारसेवक खुशी मना रहे थे। देखते ही देखते दूसरा और तीसरा गुंबद भी गिर गया। वहां मिठाई बांटी जा रही थी और मुझे भी दी गई लेकिन मैंने मिठाई स्वीकार नहीं की। मैंने कहा आज मैं मिठाई नहीं खाऊंगा।
            इसके उलट बाबरी मस्जिद विध्वंस की जांच के लिए बने लिब्राहन आयोग की रिपोर्ट में कुछ और ही कहा गया। लिब्राहन आयोग भारत में सबसे लंबे चलने वाले आयोगों में से एक है। इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट देने की डेडलाइन को 17 बार आगे बढ़ाया और जब अंत में पेश किया गया वह भी तब जब रिपोर्ट मीडिया में लीक हो गई थी। बहरहाल लिब्राहन आयोग के अनुसार लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और विजय राजे सिंधिया ने कारसेवकों से बड़ी ही कमजोर सी अपील की। शायद यह अपील मीडिया को ध्यान में रखकर की गई थी। जब कारसेवक गुंबद पर चढ़ गए थे तो उन्हें वहां मौजूद सुरक्षाबलों का खौफ दिखाकर कहा गया कि बहुत खून बहेगा और इस चेतावनी से कारसेवकों का गुस्सा और ज्यादा फूट पड़ा। इससे मस्जिद विध्वंस का काम और तेजी से हुआ। वैसे भी कारसेवकों को सुरक्षाबलों का कोई खौफ नहीं था। यूपी के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने सबसे बड़ा पाप यही किया था कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से यह कह दिया था कि कारसेवकों पर गोली नहीं चलाई जाएगी।
            एक तरफ कारसेवक नारा लगा रहे थे कि वो हलवा पूरी खाने नहीं आए हैं, वो पुलिस की गोलियां खाने आए हैं। दूसरी ओर मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने पुलिस प्रशासन को लिखित में आदेश दे रखा था कि कारसेवकों पर गोली नहीं चलाई जाएगी। यहां तक कि इंडो तिब्बत पुलिस फोर्स के डी जी ने अपनी दो बटालियन आगे बढ़ाने की अनुमति जिला कलेक्टर से मांगी, तो उन्होंने इसके लिए क्षेत्र विशेष के मजिस्ट्रेट से अनुमति लेने का आग्रह किया। अगले 2 घंटे तक DG क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट को ढूंढते रहे। इतने में तीसरा गुंबद भी गिराया जा चुका था।
babri masjid            6 दिसंबर की शाम को सुप्रीम कोर्ट में बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले पर सुनवाई हो रही थी। कोर्ट ने इस विध्वंस पर दुख और नाराजगी जताई और जब उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के वरिष्ठ वकील केके वेणुगोपाल से सफाई मांगी तो वेणुगोपाल ने कहा मुझे मेरे पक्ष ने गुमराह किया, मेरा सिर शर्म से झुक गया है। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और अटल बिहारी वाजपई ने घटना को दुखद बताया। शाम 7:00 बजे तक मस्जिद में उस स्थान पर भगवान श्री राम, माता सीता, लक्ष्मण और हनुमान जी की मूर्तियां स्थापित कर दी गई, जहां नक्शे के अनुसार मंदिर का गर्भ गृह है। समतल कर दी गई भूमि पर मंदिर निर्माण का कार्य भी शुरू हो गया। सबकुछ तयशुदा कार्यक्रम के अनुसार चलता नजर आ रहा था। दिलचस्प बात यह रही कि मस्जिद का विध्वंस तब हुआ जब उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार थी और अस्थाई मंदिर का निर्माण तब हुआ जब यूपी में राष्ट्रपति शासन अर्थात् केंद्र की कांग्रेस सरकार सत्ता में थी। दिल्ली में शाम को कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई गई। इसमें यूपी सरकार को बर्खास्त करने का फैसला किया गया। हालांकि तब तक मुख्यमंत्री कल्याण सिंह अपनी नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए इस्तीफा दे चुके थे। अगले दिन कल्याण सिंह ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अधिकारियों का कहीं कोई दोष नहीं, कसूर नहीं, गलती नहीं, सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। अगर किसी न्यायालय में कोई केस चलाना है तो मेरे खिलाफ चलाएं। अगर किसी आयोग के समक्ष जांच करवानी है तो मेरी जांच करवाएं। अगले 2 महीने तक धीरे धीरे मस्जिद तोड़ने का काम चलता ही रहा।

विध्वंस के बाद मलबे से प्राप्त साक्ष्य:

               मलबे में से प्राप्त कुछ अभिलेख, अलंकृत चित्रों आदि से बाद में यह काफी हद तक स्पष्ट हो गया था कि दरअसल मस्जिद किसी हिंदू मंदिर को तोड़कर उसके स्थान पर बनाई गई थी। इन प्राप्त साक्ष्यों में से इस प्राचीन इमारत में से हिंदू मंदिरों के बहुत सारे प्रतीक, मूर्तियां एवं अन्य साक्ष्य मिले। इससे यह सिद्ध होता है कि मीर बाकी ने मस्जिद निर्माण में मंदिर के तोड़े हुए अंशों का ही प्रयोग किया।
                  राम मंदिर से मिले अभिलेखों की समीक्षा करने में लगी पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की अधिकारी पुरातत्ववेत्ता भोपाल की डॉक्टर सुधा मलैया के की उपस्थिति में पूरा अवशेषों को मलबे से एकत्र किया गया। उनके अनुसार गत अनेक वर्षों से चली आ रही बहस को भी ढांचे के टूटने के बाद विराम मिल गया है ढांचे के मलबे से अभी तक जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उनमें अनेक अलंकृत वास्तु खंड, मूर्तियां तथा लाल पीले बलुआ पत्थर के दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। इन अभिलेखों के अध्ययन से पता चलता है कि बारहवीं सदी में यह एक प्राचीन राम मंदिर था। जिसको की गहड़वाल वंशी गोविंद चंद ने बनवाया था। उनके अनुसार यह अभिलेख 4.5 फुट लम्बा और 2 फुट चौड़े लाल बलुआ पत्थर पर लिखा गया है। इसकी चौथी पंक्ति में लिखा गया है कि यह मंदिर भगवान राम की जन्म स्थल पर बना हुआ है। इस अभिलेख की लिपि नागरी और भाषा संस्कृत है। इसकी 15वीं पंक्ति में मंदिर की विशालता और भव्यता का जिक्र है
       "विशाल शैल शिखर श्रेणी शीलासंहतिव्यूहैर्विष्णुहरे र्हिरण्यकलश श्री सुंदरंंमंदिरंं पूर्वैरप्यकृतं कृतं नृपतिर्भियेनदमित्यदभुुुुतं ।"      इसकी 17वीं पंक्ति मे अयोध्या और साकेत मण्ड़ल का जिक्र है-
       "उद्दाम सौध विबुुुुधालयनीमयोध्यामधास्य तेन साकेतमण्डलअखण्ड सकारि कूपवापी प्रतिश्रय तडागसहस्रमिश्रं ।"         इसकी19 वीं पंक्ति में जिक्र आता है विष्णु के वामन रूप और राम रूप का, जिसने दुष्ट दशानन का वध किया था -        "सीपुंसयम्यं बाणं रणे कुर्व्वाणां बलिराज बाहुदलनं कृत्वा च भूर्व्विक्रमान् । कुर्व्वन्दुष्ट दशानन ......... ।"
              2003 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को यह निर्देश दिया कि वह विवादित ढांचे के नीचे और उसके आसपास साक्ष्यों की तलाश करें और पता करके बताएं कि वहां वास्तव में पहले कोई मंदिर का अस्तित्व था भी अथवा नहीं। लगभग 100 दिनों की खुदाई और सर्वेक्षण के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने अपनी रिपोर्ट इलाहाबाद हाईकोर्ट में दी। जिसमें बताया गया कि वहां कुछ स्तंभ मिले हैं जिन पर पशु आकृतियां, पक्षियों की आकृतियां, मानव आकृतियां और यक्ष आकृतियां इत्यादि मिली है। पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की रिपोर्ट के अनुसार वहां लगभग 50 के आसपास ऐसे खंबे मिले हैं जिन पर हिंदू धर्म से संबंधित संकेतों का उत्कीर्णन किया गया है। कुछ अन्य साक्ष्यों के आधार पर भी पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने यह माना कि यह निर्माण 10 वीं अथवा 11वीं शताब्दी का है, जो मस्जिद निर्माण से भी पुरातन है। लेकिन भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की यह रिपोर्ट काफी विवादास्पद रही क्योंकि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इतना माना कि वहां पर मस्जिद से पहले हिंदू धर्म स्थल अवश्य था, लेकिन रिपोर्ट में कहीं भी राम मंदिर शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है।

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