Wednesday 29 November 2017

1971 भारत पाक युद्ध 1: पृष्ठभूमि और नियोजन

By Anuj beniwal
           3 दिसंबर 1971 को देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी पश्चिम बंगाल में एक आम सभा को संबोधित कर रही थी।
1971 indo pak war
इस सभा को बीच में छोड़कर वो दिल्ली लौट आई। 10 सालों में यह तीसरी बार था जब भारत पर कोई हमला हुआ था।

           इस हमले के बीज पाकिस्तान ने 1971 के मार्च महीने में ही बो दिए थे, जगह थी पूर्वी पाकिस्तान की राजधानी ढाका। पूर्वी पाकिस्तान के उस समय के हालात बहुत ही नाजुक एवं गंभीर थे। इन हालातों को दुनिया के सामने पहली बार रखने वाले पत्रकार थे एंथनी मैस्करहैन्स।
           एंथनी मैस्करहैन्स पश्चिमी पाकिस्तान में पत्रकारिता कर रहे थे, उसी समय उन्हें पश्चिमी पाकिस्तान की सेना पूर्वी पाकिस्तान में यह दिखाने के लिए ले गई की पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तान की सेना कितना अच्छा काम कर रही है। लेकिन वहां उन्होंने जो देखा उनसे वो पूरी तरह से हिल गए। इस दौरान उन्होंने एक रिपोर्ट बनाई और चुपचाप यह रिपोर्ट ब्रिटेन के एक अखबार संडे टाइम्स को भेज दी। जब संडे टाइम्स ने इस रिपोर्ट को प्रकाशित किया तो पूरी दुनिया में खलबली मच गई और पूर्वी पाकिस्तान के हालातों के बारे में पूरी दुनिया ने जाना। संडे टाइम्स में छपी इस रिपोर्ट की हेडलाइन थी "GENOCIDE" (कत्लेआम)। यह रिपोर्ट 13 जून 1971 को संडे टाइम्स में प्रकाशित हुई थी।
           दरअसल पूर्वी पाकिस्तान में बांग्ला बोलने वाले लोगों की बहुतायत थी जबकि पश्चिमी पाकिस्तान में उर्दू जुबान बोली जाती थी। ब्यूरोक्रेसी हो, पढ़ाई लिखाई हो, नौकरी हो या सेना हर जगह पश्चिमी पाकिस्तान के लोगों का दबदबा था। पूर्वी पाकिस्तान के लोगों ने इस दबदबे के खिलाफ बगावत कर दी। जिसे कुचलने के लिए पश्चिमी पाकिस्तान की सेना बैरकों से बाहर निकली और शुरू हुआ ऑपरेशन सर्च लाइट। बांग्लादेश की सरकार पाकिस्तानी सेना द्वारा किए गए इस नरसंहार में जान गवाने वाले लोगों की संख्या 30 लाख बताती है। कुछ जानकारों का मानना है कि मृतकों की असली संख्या का अंदाजा लगाना मुश्किल है लेकिन किसी भी हालात में 300000 से कम लोगों की हत्या नहीं की गई थी।
           इस नरसंघार से बचने के लिए लगभग 1000000 लोग भारत में शरणार्थी बन गए। भारत के पश्चिमी राज्यों त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, बिहार और असम जैसे राज्यों में भारी मात्रा में शरणार्थी पहुंचने लगे। देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री थी श्रीमती इंदिरा गांधी। इंदिरा गांधी के सामने दोहरी चुनौती थी। पहली, पश्चिमी राज्यों में शरणार्थियों के कारण किसी सांप्रदायिक हिंसा की वारदात ना हो और दूसरी, इन राज्यों पर अतिरिक्त आर्थिक भार ना पड़े। इंदिरा गांधी 1971 में ही आम चुनाव जीतकर फिर से देश की प्रधानमंत्री बनी थी। पड़ोस में हो रही इस बड़ी उत्तल पुथल ने उनकी सरकार को और पहले से लचर हो रही भारतीय अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से हिला कर रख दिया। इंदिरा गांधी यह समझ चुकी थी कि जब तक पूर्वी पाकिस्तान की समस्या का पूरी तरह से समाधान न कर दिया जाए, शरणार्थी समस्या का हल ढूंढना निरर्थक होगा।
           लिहाजा इंदिरा गांधी ने 25 अप्रैल 1971 को एक कैबिनेट बैठक बुलाई। इस बैठक में कैबिनेट मंत्रियों के अलावा थल सेना प्रमुख एस एच एफ माणिक शॉ को भी बुलाया गया। इस बैठक में क्या हुआ इसका पूरा ब्यौरा माणिक शॉ ने अपने एक भाषण में दिया था। उनके अनुसार मीटिंग शुरु होते ही इंदिरा गांधी ने त्रिपुरा, आसाम और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्रियों के आपात टेलीग्राम पढ़कर सुनाए। जिनमें उन राज्यों की गंभीर स्थिति का उल्लेख था। पूरे बैठक हॉल में सन्नाटा छा गया। तब इंदिरा गांधी ने थल सेना प्रमुख से कहा "आई वांट यू टू डू समथिंग।" तब मानिक शॉ ने पूछा कि आप मुझसे क्या चाहती हैं? तो इंदिरा ने जवाब दिया मैं चाहती हूं भारतीय सेना पूर्वी पाकिस्तान में दाखिल हो। मानिक शॉ ने कहा कि इसका मतलब होगा जंग, तो इंदिरा गांधी ने प्रत्युत्तर में कहा "जंग हो तो हो मुझे इसकी परवाह नहीं।" माणिक शॉ ने अपने तर्कों से इसे मानने से मना कर दिया। उनके अनुसार उन्होंने कहा था कि "आज 25 अप्रैल है, हिमालय के सारे रास्ते खुल चुके हैं। अगर चीन हमें अल्टीमेटम देता है तो हमें चीन और पाकिस्तान दोनों से लड़ना पड़ेगा, जिसमें हम असमर्थ हैं।" मानिक शॉ ने आगे कहा कि पिछले साल पश्चिम बंगाल में हुए चुनाव में सरकारी आदेश के अनुसार 20000 सैनिकों की तैनाती पश्चिम बंगाल के छोटे गांवों और कस्बों में की गई थी। उसके अलावा कुछ और डिवीजन आसाम, आंध्रप्रदेश जैसे राज्यों में लगी हुई है। जबकि मेरी अपनी आर्म्ड डिवीजन झांसी में है। इन सब को इन जगहों से निकाल कर अपने डिवीजन हेड क्वार्टर तक भेजने में 1 महीने का समय लग जाएगा, वो भी तब जब देश की सारी सड़कें और रेल सिर्फ सेना के हवाले कर दी जाए तो। इसके अलावा एक और बात कि आर्म्ड डिवीजन में अभी महज 13 टैंक है। मानिक शॉ ने आगे कहा कि अगर हम अभी युद्ध की तैयारी करते हैं तो जब तक हम युद्ध की पोजीशन में पहुंचेंगे, पूर्वी पाकिस्तान में मानसून आ चुका होगा और जब इस भूभाग में मानसून आता है तो नदियां समंदर बन जाती है, एक किनारे पर खड़े होकर नदी का दूसरा किनारा ढूंढ पाना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे में अगर अब भी युद्ध की तैयारी करने के आदेश दिए जाते हैं तो मैं प्रधानमंत्री और पूरे कैबिनेट को 100% हार की गारंटी दे सकता हूं। मानिक शॉ ने अपने भाषण में आगे बताया है कि उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चेहरा गुस्से से लाल हो कर तमतमा उठा था। उन्होंने कैबिनेट को 4:00 बजे शाम को फिर से मिलने का कहा। जब सब चलने लगे तो प्रधानमंत्री ने थल सेना प्रमुख को रुकने के लिए कहा और उनसे पूछा कि मैं जो चाहती हूं वह आपको पता है, अब आप बता दीजिए आपको कितना समय लगेगा। मानिक शॉ के अनुसार उन्होंने तब कहा था कि मैं अभी कुछ नहीं कह सकता, लेकिन मैं इतना वादा करता हूं कि अगर मुझे तैयारी और प्लानिंग का पूरा मौका मिला तो हमारी जीत जरुर होगी।
           लिहाजा 25 अप्रैल 1971 की मीटिंग में यह साफ हो चुका था कि पूर्वी पाकिस्तान की समस्या पर भारत चुप नहीं बैठेगा और यह भी साफ हो चुका था कि भारतीय सेना फिलहाल किसी भी जंग के लिए तैयार नहीं है। युद्ध की तैयारी के खुले आदेश भारतीय सेना के पास थे। अब इंतजार था तो सिर्फ इस बात का कि जंग कब होगी?
           पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिमी पाकिस्तान के दमन के खिलाफ गुस्सा लगातार भड़क रहा था। शेख मुजीबुर्रहमान इस गुस्से का प्रतीक बन गये। वो लगातार पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों के हक की लड़ाई लड़ रहे थे और कई बार जेल गए। इधर पश्चिमी पाकिस्तान में भी राजनीतिक उठापटक चल रही थी। जनरल आयूब खान ने तख्तापलट कर पाकिस्तान सरकार को बर्खास्त कर पूरे पाकिस्तान में मार्शल लॉ लागू कर दिया।
           इसी बीच दिसंबर 1970 की पाकिस्तान के आम चुनावों में राजनीति की एक नई करवट देखने को मिली। शेख मुजीबुर्रहमान को पूर्वी पाकिस्तान में बंगबंधु कहा जाने लगा था और उनका समर्थन पूर्वी पाकिस्तान में लगातार बढ़ रहा था। दिसंबर 1970 के आम चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान की 2 सीटों को छोड़कर सभी सीटों पर मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग की जीत हुई और नतीजों के आधार पर पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में मुजीब की पार्टी अवामी लीग को बहुमत मिला। जब मुजीब ने सरकार बनाने का दावा पेश किया तो याहिया खान और जुल्फिकार अली भुट्टो की जोड़ी ने उन्हें सरकार बनाने की बजाय गिरफ्तार कर लिया। मुजीब ने पाकिस्तान सरकार की इस हरकत के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। मुजीब समर्थक पूर्वी पाकिस्तान में सड़कों पर उतर आए। 7 मार्च को मुजीब के आह्वान के बाद पूरा पूर्वी पाकिस्तान सुलग उठा। लेकिन याहिया खान ने इसकी परवाह नहीं की, उल्टे पूर्वी पाकिस्तान पर पश्चिमी पाकिस्तान की सेना का दमनचक्र एक बार फिर शुरू हो गया था।
           इस दमन के बाद और हजारों-हजार शरणार्थी भारत में आने लगे। इंदिरा सरकार पर अब शरणार्थी समस्या का हल ढूंढने का दबाव निरंतर और भी गंभीर होता जा रहा था। बहरहाल इन हालातों के बीच में इंदिरा गांधी के पास विकल्प क्या थे? पहला कि वह शरणार्थियों को बलपूर्वक वापस भेज दें, जो प्रथम दृष्टया ही न केवल नामुमकिन था अपितु अमानवीय भी होता। दूसरा कुछ लोगों का यह भी मानना है कि राजनीतिक वजहों से वो इन शरणार्थियों को वापस भेजना भी नहीं चाहती थी।
           उनकी सोच थी कि पाकिस्तान को दो टुकड़ों में तोड़ दिया जाए। इंदिरा गांधी शरणार्थी समस्या को लेकर काफी गंभीर थी। इसलिए जुलाई 1971 में उन्होंने पश्चिम बंगाल में बने शरणार्थी शिविरों का खुद दौरा किया। इस रेडियो ब्रॉडकास्ट से उनकी मनोस्थिति पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है। "आप अत्याचार और दमन से बचने के लिए अपने देश को छोड़कर हमारे देश में आए हैं। लेकिन अन्याय और अत्याचार दूर तब होगा जब लोग वही रहकर उससे लड़े। हमारा देश गरीब है, लेकिन तब भी जब कोई कठिनाई में होता है तो हमारे सब लोग चाहे कितने भी गरीब हो उनकी सहायता करने को तैयार हो जाते हैं। इसीलिए हमसे जितना हो सकेगा हम जरूर करेंगे।" इतना ही नहीं 24 मई 1971 को श्रीमती इंदिरा गांधी ने लोकसभा में यह भाषण देकर दुनिया के सामने भी भारत का रुख साफ कर दिया था। "भारत, पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता है। हमने पिछले 23 सालों या इससे भी अधिक समय तक ऐसा नहीं किया है। हालांकि पाकिस्तान ने ऐसा संयम नहीं रखा है। आज जिसे पाकिस्तान की अंदरुनी मामला कहा जा रहा है, वह भारत की भी आंतरिक समस्या बन गई है। इसलिए हम पाकिस्तान को यह कहना चाहते हैं कि वह आंतरिक मामलों के नाम पर जो कार्यवाही कर रहा है उसे तत्काल रोकी जाए। यह कार्रवाई हमारे लाखों नागरिकों और क्षेत्र की स्थिरता के प्रतिकूल है। अतः पाकिस्तान को इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती।" इंदिरा गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि अब यह पाकिस्तान का अंदरुनी मामला न रहकर अंतरराष्ट्रीय समस्या बन चुका है और बड़े देशों को इसमें आकर पाकिस्तान पर दबाव डालना चाहिए। लेकिन हमेशा की तरह अमेरिका एक बार फिर भारत की बजाय पाकिस्तान के पक्ष में आ खड़ा हुआ। इंदिरा इस से खासी नाराज थी। जल्द ही उन्हें इस का मौका भी मिला।
           अमेरिका के तत्कालीन सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर भारत आए हुए थे। इंदिरा ने उन्हें निजी दावत पर अपने घर नाश्ते पर बुलाया। लेकिन इस दावत में इंदिरा ने एक और शख्स को भी आमंत्रित किया था। वह थे भारतीय थलसेना प्रमुख सैम मानिक शॉ। इंदिरा ने उन्हें सख्त हिदायत दी थी कि वो नाश्ते पर अपनी आर्मी यूनिफॉर्म में ही पहुंचे। नाश्ते पर हुई बातचीत के अनुसार इंदिरा गांधी ने किसेन्जर से कहा कि वो राष्ट्रपति निक्सन को समझाएं कि पूर्वी पाकिस्तान में जो हालात हैं, वह लगातार बदतर होते जा रहे हैं। ऐसे में भारत के लिए यह आसान नहीं है कि वह चुपचाप बैठ कर इसे देखता रहे। इस मामले में अमेरिका को कोई कदम उठाना चाहिए ताकि पाकिस्तान पर लगाम लगाई जा सके। प्रत्युत्तर में हेनरी किसिंजर ने जब यह कहा कि मैं इस बात पर अभी कोई आश्वासन नहीं दे सकता हूं, तो इंदिरा ने कहा कि अगर आप कुछ नहीं कर पाए और अगर अमेरिकी सरकार कुछ नहीं कर पाई तो मुझे जनरल से कहना पड़ेगा कि वह कुछ करें। यह जनरल नाश्ते की मेज पर मौजूद भारतीय थल सेना प्रमुख सैम मानिक शो थे। अब इंदिरा गांधी का नजरिया बिल्कुल साफ था या तो अमेरिका पाकिस्तान पर दबाव बनाए अन्यथा भारत को पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई करनी पड़ेगी।
           उन दिनों अमेरिका-चीन से नज़दीकियां बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। इसके लिए उसे पाकिस्तान की जरूरत थी। इसके जवाब में इंदिरा ने ऐसा पासा फेंका जिसकी अमेरिका को कल्पना भी नहीं थी। 2 अगस्त 1971 को इंदिरा गांधी सोवियत रूस की यात्रा पर गई। 9 अगस्त 1971 को भारत और सोवियत संघ के बीच एक समझौता हुआ। जिसमें दोनों देशों ने एक दूसरे की सुरक्षा का वादा किया और जरूरत पड़ने पर सैन्य सहायता का भरोसा दिलाया।
           एक तरफ इंदिरा गांधी पाकिस्तान की कूटनीतिक घेराबंदी कर रही थी तो दूसरी तरफ थल सेना प्रमुख सैम माणिक शॉ पाकिस्तान के अंदर ही उसे घेरने की योजना बना चुके थे। खुफिया रिपोर्टों पर नजर रखने वाले प्रवीण स्वामी के द हिंदू अखबार में छपे एक लेख के अनुसार थल सेना प्रमुख ने उस समय कोलकाता में पश्चिमी ब्रिगेड के ब्रिगेडियर को ऑपरेशन इंस्ट्रक्शन 52 के तहत खुफिया नोट भेजा। सैम मानेकशॉ का आदेश था कि खुफिया एजेंसियां पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों को पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के युद्ध में जोड़ें। इसके लिए भारतीय सेना उन्हें न केवल प्रशिक्षण देगी अपितु हथियार भी मुहैया करवाएगी। ताकि उंहें पाकिस्तानी सेना के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध में उतारा जा सके। इस से न केवल पाकिस्तानी सेना की ताकत घटेगी अपितु उन्हें अंदरूनी मामलों से बाहर निकलने का समय भी नहीं मिलेगा। आदेश मिलते ही सेना ने इस पर अमल शुरू कर दिया और जिम्मेदारी मिली सुजानसिंह उबान को। सुजान सिंह उबान उस समय स्पेशल फ्रंटियर फोर्स के कमांडर थे। इसे एस्टेब्लिश 22 भी कहा जाता है। सेना की इस टुकड़ी को बेहद ही खुफियां अभियानों में लगाया जाता है और इसकी कमान खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड एनालाइसिस विंग के हाथों में होती है।
           आदेश मिलते ही बांग्लाभाषी लड़कों की भर्ती भारतीय सेना में शुरू कर दी गई और नींव पड़ी मुक्ति वाहिनी की। पूर्वी पाकिस्तान की आजादी के लिए बनी सेना का नाम मुक्ति वाहिनी रखा गया। प्रवीण स्वामी ने अपने लेख में लिखा है कि भारत में अलग-अलग जगह पर 10 कैंप लगाकर इन छापामारों को तैयार किया जा रहा था। सितंबर में इस योजना को और फैला दिया गया, लक्ष्य था हर महीने 20000 छापामार लड़ाकों की प्रशिक्षित करना।
           इधर पूर्वी पाकिस्तान के हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। पुलिस, पैरामिलिट्री फोर्स, ईस्ट बंगाल रेजिमेंट और ईस्टर्न पाकिस्तान रेजीमेंट के जवानों ने पश्चिमी पाकिस्तान की तानाशाही के खिलाफ बगावत कर अपने आप को आजाद घोषित कर दिया था। लड़ाई मुक्ति वाहिनी और पश्चिमी पाकिस्तान की सेना के बीच हो रही थी।
            इधर यह खबर आई कि पश्चिमी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्रहमान पर गोपनीय तरीके से मुकदमा चलाए जाने की तैयारी की जा रही है। इंदिरा गांधी ने इसके जवाब में यह घोषणा कर दी कि वो मुजीबुर्रहमान को जेल से छुड़वाएगी और बांग्लादेश की आजादी में हर संभव मदद करेंगी। धीरे-धीरे देश जंग की ओर जा रहा था अथवा उसे ले जाया जा रहा था। न शरणार्थियों का आना रुक रहा था और ना पाकिस्तान का रवैया बदल रहा था। धीरे-धीरे यह लगने लगा कि अब युद्ध के अलावा और कोई विकल्प शेष नहीं बचा है।
           इस बीच इंदिरा ने एक अंतिम कोशिश की, पूरे विश्व समुदाय के बीच भारत की स्पष्ट नीति रखने की। लेकिन इस काम में इंदिरा गांधी को उनकी अपेक्षित सफलता नहीं मिली। इसके लिए श्रीमती इंदिरा गांधी 3 सप्ताह की पाश्चात्य देशों की यात्रा पर गई। शांति यात्रा का आरम्भ बेल्जियम से शुरू हुआ था। इस बीच मार्च से सितंबर 1971 में एक करोड़ शरणार्थी भारत में आ चुके थे। इनसे भारतीय अर्थव्यवस्था पर लगभग 300 करोड रुपए का अतिरिक्त भार पड रहा था। कई देशों ने भारत की आर्थिक मदद की पेशकश की, लेकिन पाकिस्तान पर रोक लगाने के मूल मुद्दे पर सब खामोश रहे। अमेरिका और यूरोपीय देशों के इस रवैए से इंदिरा काफी निराश और गुस्से में थी। इंदिरा के सब्र का बांध टूट रहा था।
           अप्रैल की कैबिनेट मीटिंग में जनरल माणिक सोनी मानसून के हवाले से युद्ध टालने का कहा था। लिहाजा अब मानसून गुजर चुका था और इंदिरा की युद्ध टालने की बाकी कोशिशें भी नाकाम हो चुकी थी। दूसरी तरफ अमेरिका और चीन के दम पर पाकिस्तान रह-रहकर युद्ध की धमकी दे रहा था। क्या भारत अब किसी बड़ी कार्रवाई के लिए तैयार था? क्या युद्ध में भारत की तीनों सेनाओं का भागीदारी होगी? इस सवाल का जवाब भी जल्द ही मिल गया। जब तत्कालीन भारतीय नौसेना के एडमिरल एसएम नंदा प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे। जब एडमिरल ने इंदिरा गांधी से पूछा कि क्या भारतीय नौसेना भारतीय सीमा क्षेत्र से बाहर निकलकर कोई कार्रवाई करेगी तो उन्हें राजनीतिक एतराज होगा? इंदिरा ने बहुत ही साफ शब्दों में कहा था If it is a war,it is war.(अगर युद्ध होगा तो वो युद्ध होगा)।
           नवंबर के आखिरी हफ्ते में पाकिस्तानी लड़ाकू विमानों ने बार-बार भारतीय वायु सीमा में दखल दी। जब पाकिस्तान को इसके लिए चेतावनी दी गई तो बजाय संभलने के याहिया खान ने बदले में भारत को 10 दिन के अंदर युद्ध की धमकी दे डाली। इस बीच पूर्वी पाकिस्तान में मुक्ति वाहिनी लगातार एक के बाद एक कई चौकियों पर कब्जा करती जा रही थी। इस कारण पाकिस्तान ने अपनी रणनीति बदली और पश्चिमी सीमा पर गोलीबारी तेज कर दी। पाकिस्तान बार बार भारत को उकसा रहा था।
           उन दिनों प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सीमावर्ती क्षेत्रों में दौरा कर रही थी और वहां के स्थानीय नागरिकों को यह विश्वास दिला रही थी कि उनकी रक्षा के लिए भारत सरकार और भारतीय सेना हरसंभव कार्य करेगी। 3 दिसंबर 1971 को ऐसे ही एक दौरे पर इंदिरा गांधी पश्चिम बंगाल में थी। उनके साथ उस समय बांग्लादेश के मुद्दे पर अहम भूमिका निभा रहे सिद्धार्थ शंकर रे भी थे, जो बाद में पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बने। इंदिरा ने उन्हें जनसभा के बाद कुछ समय तक पश्चिम बंगाल में ही रुकने का निर्देश दिया था। लेकिन ऐसा हो न सका। इंदिरा के पश्चिम बंगाल में दिए गए उस भाषण का कुछ अंश इस प्रकार था "जो देश दूसरों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करते रहते हैं, वही आज शांति कायम रखने के लिए उठाए गए हमारे कदमों पर हाय तौबा करने लगे हैं। भारत शांति का पक्षधर है, लेकिन अगर हम पर जबरदस्ती युद्ध थोपा गया तो हम लड़ने के लिए तैयार हैं। जो देश इसे पाकिस्तान का अंदरुनी मामला कहकर हमे डराने धमकाने की कोशिश कर रहे हैं, वो अच्छी तरह समझ ले कि भारत अब किसी भी ताकत की धमकी के आगे पीछे हटेगा नहीं... ।"
           इस जनसभा के बीच में ही इंदिरा गांधी को यह सूचना मिली कि पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने कई भारतीय शहरों पर बम गिराना शुरू कर दिया है। इंदिरा यह जनसभा बीच में ही छोड़ कर तुरंत दिल्ली लौट आई। लेकिन हालात इतने नाजुक थे कि उनके पायलटों को कोलकाता से दिल्ली जाने का रास्ता बदलना पड़ा। उनका विमान को कोलकाता से पहले लखनऊ और फिर लखनऊ से दिल्ली लाया गया क्योंकि दिल्ली में ब्लैक आउट हो चुका था। दिल्ली पहुंचने पर इंदिरा गांधी सबसे पहले मैप रूम पहुंची जहां सैन्य अधिकारियों ने उन्हें तमाम हालात की जानकारी दी। सैन्य अधिकारियों से बैठक के बाद इंदिरा ने कैबिनेट की आपात बैठक बुलाई और इस बैठक के बाद उन्होंने विपक्ष के नेताओं को भी तमाम हालात की जानकारी दी।
           इन सबके बीच आधी रात हो चुकी थी, जब इंदिरा गांधी ने ऑल इंडिया रेडियो से पूरे देश को संबोधित किया। इस ब्रॉडकास्ट में कहा गया "कुछ ही घंटे पहले पाकिस्तानी हवाई जहाजों ने हमारे अमृतसर, पठानकोट, श्रीनगर, अवंतीपुर, जोधपुर, उत्तरलाई, अंबाला और आगरा के हवाई अड्डों पर बमबारी की। सुलेमान, खेमकरण, पूंछ और दूसरी जगहों पर गोली चलाई। आप सबको मालूम है, पिछली मार्च से हम इस कोशिश में थे कि किसी न किसी तरह बांग्लादेश में शांति के रास्ते से वहां के प्रश्न सुलझाए जा सके। जो पश्चिमी पाकिस्तान की लड़ाई थी, वह लड़ाई अब भारत पर भी आ गई है। मुझे जरा भी संदेह नहीं है की विजय भारत की जनता की और भारत की बहादुर सेना की होगी....।"
           अब पाकिस्तान वह गलती कर चुका था जिसका इंतजार भारत कर रहा था। वह गलती थी पाकिस्तान ने भारत पर पहले हमला कर दिया था।
     अगला अंक पढें - 1971 भारत पाक युद्ध 2: युद्ध और शिमला समझौता

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