शिमला समझौता समझौता वह था, जिसके बारे में अक्सर कहा जाता है कि इसमें कश्मीर समस्या हमेशा के लिए सुलझ सकती थी।
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच यह वार्ता हुई थी। वार्ता के पीछे की कहानी शुरू हुई थी 6 महीने पहले, जब दुनिया के फलक पर एक नया देश बांग्लादेश उभरा था।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संबंध में हमारे पहले लेख में हम जान चुके हैं कि युद्ध की शुरुआत 3 दिसंबर 1971 को हुई थी। जब पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने भारतीय एयरबेस पर हमला किया था और इंदिरा गांधी उस रोज पश्चिम बंगाल में थी। इस लेख में हम उसे युद्ध के दौरान हुई घटनाओं और उसके बाद हुए शिमला समझौते की समीक्षा करेंगे। 1971 के अप्रैल महीने में हुई कैबिनेट बैठक में जनरल मानिक शॉ ने उस समय युद्ध से इंकार कर दिया था और युद्ध की तैयारी के लिए समय मांगा था। 7 महीने बाद क्या भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार थी? इस बात का सवाल जल्द मिला।
पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान की सरकार और सेना के जुल्मों से आजाद करने का वादा इंदिरा गांधी ने किया था और जब 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान के जंगी जहाजों ने भारत पर हमला किया तो फौरन इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को ढाका की तरफ बढ़ने का हुक्म जारी कर दिया। भारतीय थल सेना एक तरफ जहां ढाका की तरफ तो वहीं भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान की एयर बेस पर हमला करना शुरू कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही मुक्ति वाहिनी पाकिस्तानी सेना से लड़ रही थी। इसलिए भारतीय सेना का काम और भी आसान हो गया। भारतीय थल सेना बहुत जल्दी ही पूर्वी पाकिस्तान में एक के बाद एक चौकियों पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रही थी।
तत्कालीन पाकिस्तान के राष्ट्रपति और जनरल याहिया खान ने सोचा कि भारत का पूरा ध्यान पूर्वी पाकिस्तान और पूर्वी सीमा पर है, इसलिए उन्होंने लड़ाई को पश्चिमी सीमा की तरफ केंद्रित करने का सोचा और ज्यादा से ज्यादा जमीन पर कब्जा करने का विचार बनाया और इसलिए पहला निशाना बनाया उत्तरलाई एयरबेस को। पाकिस्तानी थल सेना ने अपना निशाना बनाया थार रेगिस्तान में 15 किलोमीटर सीमा के अंदर लोंगेवाला पोस्ट को। उनकी योजना के अनुसार लोंगेवाला पोस्ट पर कब्जा करके वो दोपहर तक रामगढ़ पर कब्जा करना चाहते थे।
लोंगेवाला पोस्ट पर तब मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी 23 पंजाब रेजिमेंट के 83 जवानों के साथ सीमा की हिफाजत में लगे हुए थे। 4 दिसंबर 1971 को जब लोंगेवाला पोस्ट पर हमला हुआ तो मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी इस चौकी की रक्षा में जुटे हुए थे। मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी को कैप्टन धर्मवीर ने सूचना दी कि पाकिस्तानी टैंकों की बड़ी फौज उनकी चौकी की तरफ बढ़ रही है। यह पाकिस्तानी सेना की वही टुकड़ी थी, जो तारीक मीर के नेतृत्व में उत्तरलाई एयरबेस पर कब्जा करना चाहती थी। मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने अपने हेडक्वार्टर से और टुकडीयां भेजने की गुजारिश की। रात होने की वजह से भारतीय वायुसेना भी उस समय हमला करने की स्थिति में नहीं थी। इसलिए अपनी छोटी सी टुकड़ी के साथ कुलदीप सिंह चांदपुरी ने हजारों की तादाद में पाकिस्तानी सेना का सामना करने का निश्चय किया। सुबह होते ही भारतीय वायुसेना के हंटर विमानों ने भी हमला शुरू कर दिया और फिर पूरे दिन भर भारतीय सेना के हंटर विमानों ने एक के बाद एक पाकिस्तानी टैंकों को तहस-नहस करना जारी रखा। शाम होते होते थार में पलड़ा पूरी तरह से पलट चुका था। 4 दिसंबर 1971 की शाम तक जैसलमेर पर कब्जा करने का सपना देखने वाले पाकिस्तान के ब्रिगेडियर तारीक मीर भारतीय थल सेना और वायु सेना की जवाबी कार्रवाई से रामगढ़ तक भी नहीं पहुंच पाए।
इसी बीच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तानी जंगी जहाजों को भारतीय वायुसेना में उड़ने से प्रतिबंधित कर दिया। इस वजह से पूर्वी पाकिस्तान में लड़ रही पाकिस्तानी सेना को मिलने वाली मदद बंद हो गई और भारतीय सेना का दबदबा निरंतर बढ़ता गया। दरअसल इस युद्ध से पहले ही भारत की तीनों सेनाओं ने पाकिस्तान की जबरदस्त नाकेबंदी कर दी थी। 3 दिसंबर के हमले का जवाब भारतीय सेनाओं ने ऑपरेशन फ्रीडम शुरू करके दिया।
इस युद्ध में भारतीय नौसेना ने भी दो मोर्चे संभाल रखे थे। पहला बंगाल की खाड़ी में पाकिस्तानी नौसेना को रोकना और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान की नौसेना को अरब सागर में जवाबी कार्रवाई कर मुंह तोड़ जवाब देना। पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध का नेतृत्व आई एन एस मैसूर में एडमिरल कुरुविल्ला की कमान ने किया। 5 दिसंबर 1971 को भारतीय नौसेना ने पाकिस्तान के कराची बंदरगाह पर जबरदस्त हमला किया। इस हमले में कराची बंदरगाह के साथ-साथ पाकिस्तान नौसेना मुख्यालय को भी तबाह कर दिया गया। भारतीय नौसेना की कराांची पर की गई जबरदस्त बमबारी के बाद कराची बंदरगाह कई दिनों तक सुलगता रहा।
आई एन एस विक्रांत ऐसा जंगी बेड़ा था, जिससे लड़ाकू विमान उड़ान भर सकते थे। पाकिस्तानी एयरक्राफ्ट विक्रांत को तबाह करना चाहते थे, जिससे पूर्वी पाकिस्तान की ब्लॉकेज को तोड़ा जा सके और भारतीय नौसेना के मनोबल को भी गििराया जा सके। 5 दिसंबर 1971 को विक्रांत से उड़ान भरने वाले जंगी विमानों ने पूर्वी पाकिस्तान के काकश बाजार और चटगांव बंदरगाह को तबाह कर दिया। विक्रांत की खोज में और इसे तबाह करने के लिए निकली पाकिस्तान की उस समय की सबसे उत्कृष्ट पनडुब्बी गाजी को रवाना किया गया। लेकिन 1971 की जंग में एक भी गोला दागे बिना पी एन एस गाजी 93 सैनिकों के साथ समंदर में ही दफन हो गई। भारतीय जंगीपोत आई एन एस राजपूत ने विशाखापट्टनम के पास गाजी को तबाह कर दिया था। गाजी के डूब जाने के बाद पाकिस्तानी सेना का मनोबल टूट चुका था।
युद्ध शुरू होने के महज 4 दिनों के भीतर ही भारत की तीनों सेनाओं ने पाकिस्तानी सेना को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन अभी भी भारतीय सेनाओं ने महज कुछ लड़ाइयां ही जीती थी न कि पूरा युद्ध जीता था। लड़ाई शुरू होने के 72 घंटे के अंदर ही इंदिरा गांधी ने लोकसभा में एक बड़ा बयान दिया "जब पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ ही दिया है, तो अब हमारी हिचकिचाहट भी अपना महत्व खो चुकी है। मुझे सदन को यह बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि भारत सरकार ने वर्तमान स्थिति और बांग्लादेश की सरकार के लगातार अनुरोध पर बहुत सावधानी पूर्वक विचार कर के गण प्रजातंत्रिय बांग्लादेश को मान्यता देने का निश्चय किया है। अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बांग्लादेश के लिए यह काफी महत्वपूर्ण था, क्योंकि भारत की तरफ से अगर इस फैसले में कुछ दिनों की भी देरी होती तो कुछ भी हो सकता था।
भारत पाकिस्तान की लड़ाई में अमेरिका पाकिस्तान के पक्ष में था और मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में चला गया था। अमेरिका हर हालात में युद्ध विराम चाहता था। अगर युद्ध विराम हो जाता तो आजाद बांग्लादेश की बात ठंडे बस्ते में चली जाती। अमेरिका ने युद्ध विराम की कोशिशें युद्ध के दूसरे दिन से ही शुरु कर दी थी, जब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस मामले को उठाया। लेकिन रूस ने युद्ध विराम के इस मामले पर वीटो कर दिया। सोवियत रूस पर अमेरिका लगातार दबाव बनाए हुए था। भारत, बांग्लादेश को मान्यता देकर इस चाल को निराधार करने की कोशिश में था।
इधर पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना को बचने का रास्ता भी नहीं मिल रहा था। हार की कगार पर खड़े पाकिस्तान ने अमेरिका से मदद की गुहार लगाई। अमेरिका ने इसके लिए चीन को मोहरा बनाया। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर को यह आदेश दिया कि वह चीन से वार्ता करें और चीन से कहिए कि वह भारत को धमकी दे, ताकि भारत का ध्यान पूर्वी पाकिस्तान से हटे और उसे अपनी फोज को चीन की तरफ भेजना पड़े। अमेरिका का इस कदर पाकिस्तान के समर्थन में आने का एक और कारण यह भी था कि हाल में ही श्रीमती इंदिरा गांधी जब रूस दौरे पर थी तो उन्होंने रूस से एक बड़ा सुरक्षा समझौता किया था। इससे अमेरिका और पश्चिमी देशों में इस बात की खलबली थी कि भारत अब गुटनिरपेक्षता की बजाय रूस की तरफ झुकता जा रहा है। ऐसे हालातों में अगर भारत पाकिस्तान को समाप्त कर देता है तो यह उनके लिए एक बहुत बड़ा झटका होता। अमेरिका का मकसद चीन से भारत को धमकी दिलवाना था।
इसी बीच राष्ट्रपति निक्सन ने अपने सातवें जंगी बेड़े को बंगाल की खाड़ी की तरफ रवाना कर दिया। इसकी खबर भारत को 8 दिसंबर को लग चुकी थी। अमेरिका का यह 7वां जंगी बेड़ा सबसे ताकतवर नौसैनिक बेड़ा था। इसके जवाब में इंदिरा गांधी ने पहले रूस से मदद मांगी, हाल ही में हुए मैत्री समझौते के अनुसार भारत पर हमला रूस पर हमला होता। सोवियत रूस ने एडमिरल ब्लादिमीर क्रुग्ले क्रोफ के नेतृत्व में अपने प्रशांत महासागर में तैनात अपने जंगी बेड़े को हिंद महासागर में भेज दिया। सोवियत रूस के इस बेडे को 10th ऑपरेटिव बैटल ग्रुप कहा जाता था, इसमें परमाणु पनडुब्बी और जहाज शामिल थे। इस नौसैनिक बडे के प्रमुख एडमिरल ब्लादिमीर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें निर्देश थे कि वो अमेरिकी नौसैनिक बेड़ा को भारतीय नौसेना ठिकानों से दूर रखें।
12 दिसंबर आते-आते भारत पाकिस्तान युद्ध अब वैश्विक स्तर पर पहुंच चुका था। इंदिरा गांधी ने यह मन बनाया की अमेरिकी बेडों के भारतीय नौसैनिक क्षेत्र में पहुंचने से पहले ही पाकिस्तानी सेना को समर्पण के लिए मजबूर करना होगा। थल सेना प्रमुख ने तुरंत ही पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण के लिए चेतावनी जारी कर दी। मेजर जनरल फरमान अली उस समय पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर के सलाहकार थे। थल सेना प्रमुख जनरल सैम माणिक शॉ ने मेजर जनरल राव फरमान अली को संदेश भेजा कि आत्मसमर्पण करने वाले सैनिकों को के साथ अच्छा बर्ताव किया जाएगा और उन्हें सुरक्षा का वादा दिया जाएगा। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी को चीन और अमेरिका से मदद की उम्मीद थी। उन्होंने कहा कि ढाका जीतने के लिए पहले भारतीय सेना को उन्हें मारना होगा, उनकी छाती पर से भारतीय सेना को अपने टैंक गुजारने होंगे, तभी ढाका उन्हें मिलेगा।
लेकिन जनरल नियाजी के यह दावे अगले ही दिन 13 दिसंबर को हवा हो गए। पूर्वी पाकिस्तान में लड़ रही पाकिस्तानी सेना के सैनिकों का हौसला पस्त हुआ 14 दिसंबर 1971 को, जब भारतीय वायुसेना ने ऐसे ठिकाने को निशाना बनाया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। वह निशाना था पाकिस्तान के गवर्नर का घर, जहां पूर्वी पाकिस्तान के सभी बड़े अधिकारी एक गुप्त बैठक के लिए एकत्रित हुए थे। 2 दिन पहले तक बड़े बड़े हवाई दावे करने वाले कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी इस हमले के बाद इतना पस्त हुए कि उन्होंने भारतीय सेना को युद्ध विराम का प्रस्ताव भेज दिया। जनरल सैम मानेक शॉ ने साफ कर दिया कि युद्धविराम का प्रस्ताव केवल आत्मसमर्पण के साथ ही स्वीकार किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि 16 दिसंबर 1971 तक भारतीय सेना बमबारी रोक रही है, 16 दिसंबर 1971 के सुबह 9:00 बजे तक अगर जनरल नियाजी अपने सभी सैनिकों को आत्मसमर्पण का आदेश नहीं देते हैं तो भारतीय सेना और अधिक ताकत के साथ हमला कर देगी।
जिस समय थल सेना प्रमुख जनरल सैम मानेक शॉ पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी को संदेश भेज रहे थे उसी समय अमेरिका की सेवंथ फ्लीट बंगाल की खाड़ी में दाखिल हो चुका था और चटगांव बंदरगाह की तरफ बढ़ने लगा। अमेरिका की इस दखलंदाजी से इंदिरा बहुत नाराज थी। उन्होंने तत्काल अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को एक खुली चिट्ठी लिखी और साफ कर दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही इस जंग के असली जिम्मेदार वह खुद हैं।
इधर भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना से आत्मसमर्पण की तैयारी करवा रही थी। यह महत्वपूर्ण काम लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के कंधों पर था। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ के पद पर थे। उनका देश कोलकाता था। उनके साथ जनरल स्टाफ प्रमुख के तौर पर मेजर जनरल जी एच एफ आर जैकब थे। 16 नवंबर को जनरल सैम मानेक शॉ ने मेजर जैकब को डाका जाकर आत्मसमर्पण की तैयारी करवाने का निर्देश दिया। 4:00 बजे जैकब और नियाजी ढाका हवाई अड्डे पहुंचे। 4:30 बजे लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पूरे दल बल के साथ 5MQ हेलीकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पहुंचे। रेस कोर्स मैदान पर पहले लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण किया। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और नियाजी आमने सामने एक मेज पर बैठे, दोपहर 2:00 बजे नियाजी आत्मसमर्पण की प्रक्रिया शुरु करते हैं। शाम 4:31 पर डाका के ऐतिहासिक रेस कोर्स मैदान में बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी हाईकमान के चीफ ऑफ स्टाफ ग्रुप कैप्टन खोनकर की मौजूदगी में पूर्वी कमान के जीओसी कमांडिंग चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को महज 14 दिन में हथियार डालने पर मजबूर कर दिया। जनरल नियाजी ने पहले लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने सरेंडर के कागजों पर दस्तखत किए, उसके बाद में अपने बिल्ले उतारे। सरेंडर के प्रतीक के तौर पर जनरल नियाजी ने अपना रिवाल्वर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के हवाले कर दिया।
पाकिस्तान के सैनिकों ने हथियार डाल दिए थे, इंदिरा गांधी इसी पल के इंतजार में थी। पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण की सूचना भी तत्काल इंदिरा गांधी को मिल चुकी थी। उस समय इंदिरा गांधी एक स्वीडिश टेलीविजन चैनल को इंटरव्यू दे रही थी। उन्होंने इंटरव्यू लेने वाले क्रु मेंबर्स से थोड़े देर का इंतजार करने का कहा और तुरंत लोकसभा की तरफ बढ़ चली। लोकसभा में सदन को इस जीत की सूचना देने के बाद जल्द ही उन्होंने पूरे देश को ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से इस शानदार जीत की खबर सुनाइ। वह ऐतिहासिक इंदिरा गांधी के शब्द थे "ढाका इज नाऊ ए फ्री केपिटल ऑफ ए फ्री नेशन। द इंस्ट्रूमेंट ऑफ सरेडर हेड साईन्ड एट 8:33 इंडियन स्टैंडर्ड टाइम बाय लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी ऑन द बीहाफ ऑफ पाकिस्तान ईस्टर्न कमांड एण्ड जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा .....।"
भारत और बांग्लादेश के लोगों के लिए इस जीत की असली नायिका इंदिरा गांधी ही थी। पाकिस्तान को पूर्वी मोर्चे पर धूल चटाने के बाद इंदिरा चाहती तो लड़ाई को पश्चिमी मोर्चे पर जारी रख सकती थी, लेकिन उन्होंने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर पूरे विश्व जगत को यह संदेश दिया कि भारत शांति का पक्षधर है। हालांकि इंदिरा के इस फैसले की आलोचना भी हुई। इस करारी हार के बाद पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल याहिया खान को इस्तीफा देना पड़ा और पाकिस्तान के नई राष्ट्रपति बने जुल्फिकार अली भुट्टो। अभी भी बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान पश्चिमी पाकिस्तान में जेल में थे। 8 जनवरी 1972 को उन्हें रिहाई मिली। उनकी रिहाई के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी और शेख साहब ने मंच साझा किया श्रीमती इंदिरा गांधी बोली थी "हमने यहां भारत में 3 वादे किए थे। पहला जो शरणार्थी यहां आए हैं, वो सब अपने देश वापस जाएंगे। दूसरा हम मुक्ति वाहिनी और बांग्लादेश के लोगों की हर संभव मदद करेंगे और तीसरा कि हम शेख साहब को जेल से जरूर छुड़ाएंगे। हमने अपने तीनों वादे पूरे किए हैं।" शेख मुजीबुर्रहमान ने कहा था "दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां श्रीमती इंदिरा गांधी ने मेरी रक्षा करने की कोशिश नहीं की हो। इसके लिए मैं उनका व्यक्तिगत रूप से आजीवन आभारी रहूंगा। लगभग 7 करोड़ लोग मेरे साथ श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के आभारी रहेंगे।"
मुजीबुर्रहमान को रिहा करने के बाद पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा। 23 अप्रैल 1972 को इस बातचीत का एजेंडा तैयार किया गया और फिर जून 1972 में शिमला में समझौते के लिए बातचीत शुरू हुई। बातचीत के लिए आए शिष्टमंडल में जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और बाद में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनी बेनजीर भुट्टो भी आई थी।
समझौते में भारत की तरफ से पक्ष रखा गया कि पाकिस्तान कश्मीर में तब की सीजफायर लाइन को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लें। लेकिन पाकिस्तान के इरादे कुछ और ही थे। इस बातचीत में पाकिस्तान चाहता था कि भारत युद्ध बंदियों की वापसी और युद्ध में जीती गई जमीन को वापस देने के मुद्दों पर ही बात करें, जबकि भारत इसमें कश्मीर मुद्दे का भी स्थाई हल ढूंढना चाहता था। शिमला में चल रही बातचीतों के दौर में पीएन धर इंदिरा गांधी के सलाहकारों में से थे। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे अपने लेख कश्मीर द शिमला सोल्युशन में लिखा है कि तब की सीमा को सीजफायर लाइन मान लिया जाए और इसे धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय सीमा बना दी जाए। लेकिन पाकिस्तान शुरू में तो कश्मीर को बातचीत में शामिल ही करना नहीं चाहता था। इसी मुद्दे पर बातचीत टूटने के कगार पर पहुंच गई।
पाकिस्तानी राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ आए पाकिस्तानी पत्रकारों के शिष्टमंडल को इंदिरा गांधी ने खास इंटरव्यू दिया। पत्रकारों को दिए अपने इस खास इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने कई अहम बातें कहीं। जुल्फिकार अली भुट्टो कश्मीर मुद्दे पर किसी मध्यस्थ की भूमिका पर विचार करने का कह रहे थे, शायद उनके मन में यह मध्यस्थ अमेरिका था। लेकिन इंदिरा गांधी ने मध्यस्थता की बात को सिरे से साफ-साफ खारिज कर दिया। PN धर के मुताबिक जुल्फिकार अली भुट्टो और उनके शिष्टमंडल को कश्मीर मुद्दे पर किसी भी बातचीत अपने और अपनी सरकार के लिए घातक नजर आ रही थी।
अंतिम दौर की वार्ता में 1 जुलाई की बातचीत बेनतीजा रही, खाने के बाद रात को सब सोने चले गए लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो बेचैन थे। आधी रात को वो इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे। उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा कि कम-से-कम युद्धबंदियों के तौर पर बंदी बनाए गए 90000 पाकिस्तानी जवानों को छोड़ दें। इंदिरा गांधी ने उनकी शर्त मान ली, बशर्ते जुल्फिकार अली भुट्टो कश्मीर में सीजफायर लाइन (बाद में एलओसी कही जाने वाली रेखा) को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान ले। 2 जुलाई 1972 की देर रात को भारत ने पाकिस्तानी शिष्टमंडल के सामने समझौते के लिए छोटा ड्राफ्ट रखा। जिसे जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी सहमति दे दी। PN धर के मुताबिक जुल्फिकार अली भुट्टो सीजफायर लाइन को अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाने के लिए मान चुके थे। उन्होंने वादा किया कि धीरे-धीरे ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिनसे सीजफायर लाइन को अंतर्राष्ट्रीय आधिकारिक सीमा बना दी जाएगी। इंदिरा गांधी की सोच यह थी कि इससे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा खत्म हो जाएगा, जिससे उनकी आलोचना हो सकती है। लिहाजा दोनों नेताओं ने इस सहमति को गुप्त रखा।
धीरे-धीरे घड़ी में 12:40 हो चुके थे। भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला समझौते के मसौदे पर अपने दस्तखत कर दिए। समझौते के मुताबिक भारत युद्ध में बंदी बनाए गए सभी 93000 पाकिस्तानी सैनिकों और लगभग 5000 वर्गमील युद्ध में जीती गई जमीन पाकिस्तान को वापस लौटाने पर राजी हो गया। इसके बदले पाकिस्तान बाकी सभी मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता के जरिए सुलझाने पर राजी हुआ। इस समझौते में पाकिस्तान की तरफ से विश्वास दिलाया गया था कि दोनों देश अपने संघर्ष और विवादों को समाप्त करने की कोशिश करेंगे और दोस्ती के लिए काम करेंगे। अहम मुद्दों पर सीधी बात की जाएगी। इंदिरा और भुट्टो ने तय किया कि दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीके से निपटाएंगे। वो एक दूसरे के खिलाफ ना तो ताकत का इस्तेमाल करेंगे और ना ही एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे।
शिमला समझौते से किसको नुकसान हुआ और किसको फायदा हुआ? यह सवाल बेहद अहम है इस समझौते के बाद भी 54 भारतीय सैनिकों को रिहा नहीं किया गया। इस समझौते के बावजूद भी पाकिस्तान में रह रह कर हर बार सीमा पर गोलीबारी कर इस समझौते का उल्लंघन किया।
इस समझौते के बारे में एक कथन काफी सटीक जान पड़ता है कि भारत युद्ध तो जीत गया था, लेकिन शिमला समझौते के मंच पर हार गया।
तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच यह वार्ता हुई थी। वार्ता के पीछे की कहानी शुरू हुई थी 6 महीने पहले, जब दुनिया के फलक पर एक नया देश बांग्लादेश उभरा था।
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संबंध में हमारे पहले लेख में हम जान चुके हैं कि युद्ध की शुरुआत 3 दिसंबर 1971 को हुई थी। जब पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने भारतीय एयरबेस पर हमला किया था और इंदिरा गांधी उस रोज पश्चिम बंगाल में थी। इस लेख में हम उसे युद्ध के दौरान हुई घटनाओं और उसके बाद हुए शिमला समझौते की समीक्षा करेंगे। 1971 के अप्रैल महीने में हुई कैबिनेट बैठक में जनरल मानिक शॉ ने उस समय युद्ध से इंकार कर दिया था और युद्ध की तैयारी के लिए समय मांगा था। 7 महीने बाद क्या भारतीय सेना युद्ध के लिए तैयार थी? इस बात का सवाल जल्द मिला।
पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान की सरकार और सेना के जुल्मों से आजाद करने का वादा इंदिरा गांधी ने किया था और जब 3 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान के जंगी जहाजों ने भारत पर हमला किया तो फौरन इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को ढाका की तरफ बढ़ने का हुक्म जारी कर दिया। भारतीय थल सेना एक तरफ जहां ढाका की तरफ तो वहीं भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान की एयर बेस पर हमला करना शुरू कर दिया। पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही मुक्ति वाहिनी पाकिस्तानी सेना से लड़ रही थी। इसलिए भारतीय सेना का काम और भी आसान हो गया। भारतीय थल सेना बहुत जल्दी ही पूर्वी पाकिस्तान में एक के बाद एक चौकियों पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रही थी।
तत्कालीन पाकिस्तान के राष्ट्रपति और जनरल याहिया खान ने सोचा कि भारत का पूरा ध्यान पूर्वी पाकिस्तान और पूर्वी सीमा पर है, इसलिए उन्होंने लड़ाई को पश्चिमी सीमा की तरफ केंद्रित करने का सोचा और ज्यादा से ज्यादा जमीन पर कब्जा करने का विचार बनाया और इसलिए पहला निशाना बनाया उत्तरलाई एयरबेस को। पाकिस्तानी थल सेना ने अपना निशाना बनाया थार रेगिस्तान में 15 किलोमीटर सीमा के अंदर लोंगेवाला पोस्ट को। उनकी योजना के अनुसार लोंगेवाला पोस्ट पर कब्जा करके वो दोपहर तक रामगढ़ पर कब्जा करना चाहते थे।
लोंगेवाला पोस्ट पर तब मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी 23 पंजाब रेजिमेंट के 83 जवानों के साथ सीमा की हिफाजत में लगे हुए थे। 4 दिसंबर 1971 को जब लोंगेवाला पोस्ट पर हमला हुआ तो मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी इस चौकी की रक्षा में जुटे हुए थे। मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी को कैप्टन धर्मवीर ने सूचना दी कि पाकिस्तानी टैंकों की बड़ी फौज उनकी चौकी की तरफ बढ़ रही है। यह पाकिस्तानी सेना की वही टुकड़ी थी, जो तारीक मीर के नेतृत्व में उत्तरलाई एयरबेस पर कब्जा करना चाहती थी। मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने अपने हेडक्वार्टर से और टुकडीयां भेजने की गुजारिश की। रात होने की वजह से भारतीय वायुसेना भी उस समय हमला करने की स्थिति में नहीं थी। इसलिए अपनी छोटी सी टुकड़ी के साथ कुलदीप सिंह चांदपुरी ने हजारों की तादाद में पाकिस्तानी सेना का सामना करने का निश्चय किया। सुबह होते ही भारतीय वायुसेना के हंटर विमानों ने भी हमला शुरू कर दिया और फिर पूरे दिन भर भारतीय सेना के हंटर विमानों ने एक के बाद एक पाकिस्तानी टैंकों को तहस-नहस करना जारी रखा। शाम होते होते थार में पलड़ा पूरी तरह से पलट चुका था। 4 दिसंबर 1971 की शाम तक जैसलमेर पर कब्जा करने का सपना देखने वाले पाकिस्तान के ब्रिगेडियर तारीक मीर भारतीय थल सेना और वायु सेना की जवाबी कार्रवाई से रामगढ़ तक भी नहीं पहुंच पाए।
इसी बीच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पाकिस्तानी जंगी जहाजों को भारतीय वायुसेना में उड़ने से प्रतिबंधित कर दिया। इस वजह से पूर्वी पाकिस्तान में लड़ रही पाकिस्तानी सेना को मिलने वाली मदद बंद हो गई और भारतीय सेना का दबदबा निरंतर बढ़ता गया। दरअसल इस युद्ध से पहले ही भारत की तीनों सेनाओं ने पाकिस्तान की जबरदस्त नाकेबंदी कर दी थी। 3 दिसंबर के हमले का जवाब भारतीय सेनाओं ने ऑपरेशन फ्रीडम शुरू करके दिया।
इस युद्ध में भारतीय नौसेना ने भी दो मोर्चे संभाल रखे थे। पहला बंगाल की खाड़ी में पाकिस्तानी नौसेना को रोकना और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान की नौसेना को अरब सागर में जवाबी कार्रवाई कर मुंह तोड़ जवाब देना। पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध का नेतृत्व आई एन एस मैसूर में एडमिरल कुरुविल्ला की कमान ने किया। 5 दिसंबर 1971 को भारतीय नौसेना ने पाकिस्तान के कराची बंदरगाह पर जबरदस्त हमला किया। इस हमले में कराची बंदरगाह के साथ-साथ पाकिस्तान नौसेना मुख्यालय को भी तबाह कर दिया गया। भारतीय नौसेना की कराांची पर की गई जबरदस्त बमबारी के बाद कराची बंदरगाह कई दिनों तक सुलगता रहा।
आई एन एस विक्रांत ऐसा जंगी बेड़ा था, जिससे लड़ाकू विमान उड़ान भर सकते थे। पाकिस्तानी एयरक्राफ्ट विक्रांत को तबाह करना चाहते थे, जिससे पूर्वी पाकिस्तान की ब्लॉकेज को तोड़ा जा सके और भारतीय नौसेना के मनोबल को भी गििराया जा सके। 5 दिसंबर 1971 को विक्रांत से उड़ान भरने वाले जंगी विमानों ने पूर्वी पाकिस्तान के काकश बाजार और चटगांव बंदरगाह को तबाह कर दिया। विक्रांत की खोज में और इसे तबाह करने के लिए निकली पाकिस्तान की उस समय की सबसे उत्कृष्ट पनडुब्बी गाजी को रवाना किया गया। लेकिन 1971 की जंग में एक भी गोला दागे बिना पी एन एस गाजी 93 सैनिकों के साथ समंदर में ही दफन हो गई। भारतीय जंगीपोत आई एन एस राजपूत ने विशाखापट्टनम के पास गाजी को तबाह कर दिया था। गाजी के डूब जाने के बाद पाकिस्तानी सेना का मनोबल टूट चुका था।
युद्ध शुरू होने के महज 4 दिनों के भीतर ही भारत की तीनों सेनाओं ने पाकिस्तानी सेना को नाको चने चबाने पर मजबूर कर दिया था। लेकिन अभी भी भारतीय सेनाओं ने महज कुछ लड़ाइयां ही जीती थी न कि पूरा युद्ध जीता था। लड़ाई शुरू होने के 72 घंटे के अंदर ही इंदिरा गांधी ने लोकसभा में एक बड़ा बयान दिया "जब पाकिस्तान ने भारत के विरुद्ध युद्ध छेड़ ही दिया है, तो अब हमारी हिचकिचाहट भी अपना महत्व खो चुकी है। मुझे सदन को यह बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि भारत सरकार ने वर्तमान स्थिति और बांग्लादेश की सरकार के लगातार अनुरोध पर बहुत सावधानी पूर्वक विचार कर के गण प्रजातंत्रिय बांग्लादेश को मान्यता देने का निश्चय किया है। अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे बांग्लादेश के लिए यह काफी महत्वपूर्ण था, क्योंकि भारत की तरफ से अगर इस फैसले में कुछ दिनों की भी देरी होती तो कुछ भी हो सकता था।
भारत पाकिस्तान की लड़ाई में अमेरिका पाकिस्तान के पक्ष में था और मसला संयुक्त राष्ट्र संघ में चला गया था। अमेरिका हर हालात में युद्ध विराम चाहता था। अगर युद्ध विराम हो जाता तो आजाद बांग्लादेश की बात ठंडे बस्ते में चली जाती। अमेरिका ने युद्ध विराम की कोशिशें युद्ध के दूसरे दिन से ही शुरु कर दी थी, जब उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में इस मामले को उठाया। लेकिन रूस ने युद्ध विराम के इस मामले पर वीटो कर दिया। सोवियत रूस पर अमेरिका लगातार दबाव बनाए हुए था। भारत, बांग्लादेश को मान्यता देकर इस चाल को निराधार करने की कोशिश में था।
इधर पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना को बचने का रास्ता भी नहीं मिल रहा था। हार की कगार पर खड़े पाकिस्तान ने अमेरिका से मदद की गुहार लगाई। अमेरिका ने इसके लिए चीन को मोहरा बनाया। अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर को यह आदेश दिया कि वह चीन से वार्ता करें और चीन से कहिए कि वह भारत को धमकी दे, ताकि भारत का ध्यान पूर्वी पाकिस्तान से हटे और उसे अपनी फोज को चीन की तरफ भेजना पड़े। अमेरिका का इस कदर पाकिस्तान के समर्थन में आने का एक और कारण यह भी था कि हाल में ही श्रीमती इंदिरा गांधी जब रूस दौरे पर थी तो उन्होंने रूस से एक बड़ा सुरक्षा समझौता किया था। इससे अमेरिका और पश्चिमी देशों में इस बात की खलबली थी कि भारत अब गुटनिरपेक्षता की बजाय रूस की तरफ झुकता जा रहा है। ऐसे हालातों में अगर भारत पाकिस्तान को समाप्त कर देता है तो यह उनके लिए एक बहुत बड़ा झटका होता। अमेरिका का मकसद चीन से भारत को धमकी दिलवाना था।
इसी बीच राष्ट्रपति निक्सन ने अपने सातवें जंगी बेड़े को बंगाल की खाड़ी की तरफ रवाना कर दिया। इसकी खबर भारत को 8 दिसंबर को लग चुकी थी। अमेरिका का यह 7वां जंगी बेड़ा सबसे ताकतवर नौसैनिक बेड़ा था। इसके जवाब में इंदिरा गांधी ने पहले रूस से मदद मांगी, हाल ही में हुए मैत्री समझौते के अनुसार भारत पर हमला रूस पर हमला होता। सोवियत रूस ने एडमिरल ब्लादिमीर क्रुग्ले क्रोफ के नेतृत्व में अपने प्रशांत महासागर में तैनात अपने जंगी बेड़े को हिंद महासागर में भेज दिया। सोवियत रूस के इस बेडे को 10th ऑपरेटिव बैटल ग्रुप कहा जाता था, इसमें परमाणु पनडुब्बी और जहाज शामिल थे। इस नौसैनिक बडे के प्रमुख एडमिरल ब्लादिमीर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि उन्हें निर्देश थे कि वो अमेरिकी नौसैनिक बेड़ा को भारतीय नौसेना ठिकानों से दूर रखें।
12 दिसंबर आते-आते भारत पाकिस्तान युद्ध अब वैश्विक स्तर पर पहुंच चुका था। इंदिरा गांधी ने यह मन बनाया की अमेरिकी बेडों के भारतीय नौसैनिक क्षेत्र में पहुंचने से पहले ही पाकिस्तानी सेना को समर्पण के लिए मजबूर करना होगा। थल सेना प्रमुख ने तुरंत ही पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण के लिए चेतावनी जारी कर दी। मेजर जनरल फरमान अली उस समय पूर्वी पाकिस्तान के गवर्नर के सलाहकार थे। थल सेना प्रमुख जनरल सैम माणिक शॉ ने मेजर जनरल राव फरमान अली को संदेश भेजा कि आत्मसमर्पण करने वाले सैनिकों को के साथ अच्छा बर्ताव किया जाएगा और उन्हें सुरक्षा का वादा दिया जाएगा। लेकिन पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल एएके नियाजी को चीन और अमेरिका से मदद की उम्मीद थी। उन्होंने कहा कि ढाका जीतने के लिए पहले भारतीय सेना को उन्हें मारना होगा, उनकी छाती पर से भारतीय सेना को अपने टैंक गुजारने होंगे, तभी ढाका उन्हें मिलेगा।
लेकिन जनरल नियाजी के यह दावे अगले ही दिन 13 दिसंबर को हवा हो गए। पूर्वी पाकिस्तान में लड़ रही पाकिस्तानी सेना के सैनिकों का हौसला पस्त हुआ 14 दिसंबर 1971 को, जब भारतीय वायुसेना ने ऐसे ठिकाने को निशाना बनाया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। वह निशाना था पाकिस्तान के गवर्नर का घर, जहां पूर्वी पाकिस्तान के सभी बड़े अधिकारी एक गुप्त बैठक के लिए एकत्रित हुए थे। 2 दिन पहले तक बड़े बड़े हवाई दावे करने वाले कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी इस हमले के बाद इतना पस्त हुए कि उन्होंने भारतीय सेना को युद्ध विराम का प्रस्ताव भेज दिया। जनरल सैम मानेक शॉ ने साफ कर दिया कि युद्धविराम का प्रस्ताव केवल आत्मसमर्पण के साथ ही स्वीकार किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि 16 दिसंबर 1971 तक भारतीय सेना बमबारी रोक रही है, 16 दिसंबर 1971 के सुबह 9:00 बजे तक अगर जनरल नियाजी अपने सभी सैनिकों को आत्मसमर्पण का आदेश नहीं देते हैं तो भारतीय सेना और अधिक ताकत के साथ हमला कर देगी।
जिस समय थल सेना प्रमुख जनरल सैम मानेक शॉ पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी को संदेश भेज रहे थे उसी समय अमेरिका की सेवंथ फ्लीट बंगाल की खाड़ी में दाखिल हो चुका था और चटगांव बंदरगाह की तरफ बढ़ने लगा। अमेरिका की इस दखलंदाजी से इंदिरा बहुत नाराज थी। उन्होंने तत्काल अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन को एक खुली चिट्ठी लिखी और साफ कर दिया कि भारत और पाकिस्तान के बीच चल रही इस जंग के असली जिम्मेदार वह खुद हैं।
इधर भारतीय सेना पाकिस्तानी सेना से आत्मसमर्पण की तैयारी करवा रही थी। यह महत्वपूर्ण काम लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के कंधों पर था। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पूर्वी कमान के जनरल ऑफिसर कमांडिंग इन चीफ के पद पर थे। उनका देश कोलकाता था। उनके साथ जनरल स्टाफ प्रमुख के तौर पर मेजर जनरल जी एच एफ आर जैकब थे। 16 नवंबर को जनरल सैम मानेक शॉ ने मेजर जैकब को डाका जाकर आत्मसमर्पण की तैयारी करवाने का निर्देश दिया। 4:00 बजे जैकब और नियाजी ढाका हवाई अड्डे पहुंचे। 4:30 बजे लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा पूरे दल बल के साथ 5MQ हेलीकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पहुंचे। रेस कोर्स मैदान पर पहले लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने गार्ड ऑफ ऑनर का निरीक्षण किया। लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और नियाजी आमने सामने एक मेज पर बैठे, दोपहर 2:00 बजे नियाजी आत्मसमर्पण की प्रक्रिया शुरु करते हैं। शाम 4:31 पर डाका के ऐतिहासिक रेस कोर्स मैदान में बांग्लादेश की मुक्ति वाहिनी हाईकमान के चीफ ऑफ स्टाफ ग्रुप कैप्टन खोनकर की मौजूदगी में पूर्वी कमान के जीओसी कमांडिंग चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण किया। भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को महज 14 दिन में हथियार डालने पर मजबूर कर दिया। जनरल नियाजी ने पहले लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने सरेंडर के कागजों पर दस्तखत किए, उसके बाद में अपने बिल्ले उतारे। सरेंडर के प्रतीक के तौर पर जनरल नियाजी ने अपना रिवाल्वर लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के हवाले कर दिया।
पाकिस्तान के सैनिकों ने हथियार डाल दिए थे, इंदिरा गांधी इसी पल के इंतजार में थी। पाकिस्तानी सैनिकों के आत्मसमर्पण की सूचना भी तत्काल इंदिरा गांधी को मिल चुकी थी। उस समय इंदिरा गांधी एक स्वीडिश टेलीविजन चैनल को इंटरव्यू दे रही थी। उन्होंने इंटरव्यू लेने वाले क्रु मेंबर्स से थोड़े देर का इंतजार करने का कहा और तुरंत लोकसभा की तरफ बढ़ चली। लोकसभा में सदन को इस जीत की सूचना देने के बाद जल्द ही उन्होंने पूरे देश को ऑल इंडिया रेडियो के माध्यम से इस शानदार जीत की खबर सुनाइ। वह ऐतिहासिक इंदिरा गांधी के शब्द थे "ढाका इज नाऊ ए फ्री केपिटल ऑफ ए फ्री नेशन। द इंस्ट्रूमेंट ऑफ सरेडर हेड साईन्ड एट 8:33 इंडियन स्टैंडर्ड टाइम बाय लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी ऑन द बीहाफ ऑफ पाकिस्तान ईस्टर्न कमांड एण्ड जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा .....।"
भारत और बांग्लादेश के लोगों के लिए इस जीत की असली नायिका इंदिरा गांधी ही थी। पाकिस्तान को पूर्वी मोर्चे पर धूल चटाने के बाद इंदिरा चाहती तो लड़ाई को पश्चिमी मोर्चे पर जारी रख सकती थी, लेकिन उन्होंने एकतरफा युद्ध विराम की घोषणा कर पूरे विश्व जगत को यह संदेश दिया कि भारत शांति का पक्षधर है। हालांकि इंदिरा के इस फैसले की आलोचना भी हुई। इस करारी हार के बाद पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल याहिया खान को इस्तीफा देना पड़ा और पाकिस्तान के नई राष्ट्रपति बने जुल्फिकार अली भुट्टो। अभी भी बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान पश्चिमी पाकिस्तान में जेल में थे। 8 जनवरी 1972 को उन्हें रिहाई मिली। उनकी रिहाई के बाद श्रीमती इंदिरा गांधी और शेख साहब ने मंच साझा किया श्रीमती इंदिरा गांधी बोली थी "हमने यहां भारत में 3 वादे किए थे। पहला जो शरणार्थी यहां आए हैं, वो सब अपने देश वापस जाएंगे। दूसरा हम मुक्ति वाहिनी और बांग्लादेश के लोगों की हर संभव मदद करेंगे और तीसरा कि हम शेख साहब को जेल से जरूर छुड़ाएंगे। हमने अपने तीनों वादे पूरे किए हैं।" शेख मुजीबुर्रहमान ने कहा था "दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां श्रीमती इंदिरा गांधी ने मेरी रक्षा करने की कोशिश नहीं की हो। इसके लिए मैं उनका व्यक्तिगत रूप से आजीवन आभारी रहूंगा। लगभग 7 करोड़ लोग मेरे साथ श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी सरकार के आभारी रहेंगे।"
मुजीबुर्रहमान को रिहा करने के बाद पाकिस्तान के नए राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने भारत के सामने शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा। 23 अप्रैल 1972 को इस बातचीत का एजेंडा तैयार किया गया और फिर जून 1972 में शिमला में समझौते के लिए बातचीत शुरू हुई। बातचीत के लिए आए शिष्टमंडल में जुल्फिकार अली भुट्टो की बेटी और बाद में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनी बेनजीर भुट्टो भी आई थी।
समझौते में भारत की तरफ से पक्ष रखा गया कि पाकिस्तान कश्मीर में तब की सीजफायर लाइन को ही अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान लें। लेकिन पाकिस्तान के इरादे कुछ और ही थे। इस बातचीत में पाकिस्तान चाहता था कि भारत युद्ध बंदियों की वापसी और युद्ध में जीती गई जमीन को वापस देने के मुद्दों पर ही बात करें, जबकि भारत इसमें कश्मीर मुद्दे का भी स्थाई हल ढूंढना चाहता था। शिमला में चल रही बातचीतों के दौर में पीएन धर इंदिरा गांधी के सलाहकारों में से थे। उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया में छपे अपने लेख कश्मीर द शिमला सोल्युशन में लिखा है कि तब की सीमा को सीजफायर लाइन मान लिया जाए और इसे धीरे-धीरे अंतर्राष्ट्रीय सीमा बना दी जाए। लेकिन पाकिस्तान शुरू में तो कश्मीर को बातचीत में शामिल ही करना नहीं चाहता था। इसी मुद्दे पर बातचीत टूटने के कगार पर पहुंच गई।
पाकिस्तानी राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ आए पाकिस्तानी पत्रकारों के शिष्टमंडल को इंदिरा गांधी ने खास इंटरव्यू दिया। पत्रकारों को दिए अपने इस खास इंटरव्यू में इंदिरा गांधी ने कई अहम बातें कहीं। जुल्फिकार अली भुट्टो कश्मीर मुद्दे पर किसी मध्यस्थ की भूमिका पर विचार करने का कह रहे थे, शायद उनके मन में यह मध्यस्थ अमेरिका था। लेकिन इंदिरा गांधी ने मध्यस्थता की बात को सिरे से साफ-साफ खारिज कर दिया। PN धर के मुताबिक जुल्फिकार अली भुट्टो और उनके शिष्टमंडल को कश्मीर मुद्दे पर किसी भी बातचीत अपने और अपनी सरकार के लिए घातक नजर आ रही थी।
अंतिम दौर की वार्ता में 1 जुलाई की बातचीत बेनतीजा रही, खाने के बाद रात को सब सोने चले गए लेकिन जुल्फिकार अली भुट्टो बेचैन थे। आधी रात को वो इंदिरा गांधी से मिलने पहुंचे। उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा कि कम-से-कम युद्धबंदियों के तौर पर बंदी बनाए गए 90000 पाकिस्तानी जवानों को छोड़ दें। इंदिरा गांधी ने उनकी शर्त मान ली, बशर्ते जुल्फिकार अली भुट्टो कश्मीर में सीजफायर लाइन (बाद में एलओसी कही जाने वाली रेखा) को अंतर्राष्ट्रीय सीमा मान ले। 2 जुलाई 1972 की देर रात को भारत ने पाकिस्तानी शिष्टमंडल के सामने समझौते के लिए छोटा ड्राफ्ट रखा। जिसे जुल्फिकार अली भुट्टो ने अपनी सहमति दे दी। PN धर के मुताबिक जुल्फिकार अली भुट्टो सीजफायर लाइन को अंतर्राष्ट्रीय सीमा बनाने के लिए मान चुके थे। उन्होंने वादा किया कि धीरे-धीरे ऐसे कदम उठाए जाएंगे जिनसे सीजफायर लाइन को अंतर्राष्ट्रीय आधिकारिक सीमा बना दी जाएगी। इंदिरा गांधी की सोच यह थी कि इससे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर पर भारत का दावा खत्म हो जाएगा, जिससे उनकी आलोचना हो सकती है। लिहाजा दोनों नेताओं ने इस सहमति को गुप्त रखा।
धीरे-धीरे घड़ी में 12:40 हो चुके थे। भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो ने शिमला समझौते के मसौदे पर अपने दस्तखत कर दिए। समझौते के मुताबिक भारत युद्ध में बंदी बनाए गए सभी 93000 पाकिस्तानी सैनिकों और लगभग 5000 वर्गमील युद्ध में जीती गई जमीन पाकिस्तान को वापस लौटाने पर राजी हो गया। इसके बदले पाकिस्तान बाकी सभी मुद्दों को द्विपक्षीय वार्ता के जरिए सुलझाने पर राजी हुआ। इस समझौते में पाकिस्तान की तरफ से विश्वास दिलाया गया था कि दोनों देश अपने संघर्ष और विवादों को समाप्त करने की कोशिश करेंगे और दोस्ती के लिए काम करेंगे। अहम मुद्दों पर सीधी बात की जाएगी। इंदिरा और भुट्टो ने तय किया कि दोनों देश सभी विवादों और समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीके से निपटाएंगे। वो एक दूसरे के खिलाफ ना तो ताकत का इस्तेमाल करेंगे और ना ही एक दूसरे की राजनीतिक स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप करेंगे।
शिमला समझौते से किसको नुकसान हुआ और किसको फायदा हुआ? यह सवाल बेहद अहम है इस समझौते के बाद भी 54 भारतीय सैनिकों को रिहा नहीं किया गया। इस समझौते के बावजूद भी पाकिस्तान में रह रह कर हर बार सीमा पर गोलीबारी कर इस समझौते का उल्लंघन किया।
इस समझौते के बारे में एक कथन काफी सटीक जान पड़ता है कि भारत युद्ध तो जीत गया था, लेकिन शिमला समझौते के मंच पर हार गया।
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