Tuesday 19 December 2017

बोफोर्स घोटाला और राजीव सरकार

By Anuj beniwal
           यह एक ऐसी घटना थी जिसमें भारत में सबसे प्रभावशाली राजनीतिक परिवार, गांधी नेहरू परिवार का अंतिम प्रधानमंत्रित्व लील लिया गया। दरअसल स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी बोफोर्स ने 155 mm होवीत्जर  गन के कॉन्ट्रैक्ट के सिलसिले में भारतीय राजनीतिज्ञो और अधिकारियों को कई लाख डॉलर की रिश्वत दी थी।
 यह एक ऐसा वाक्या  था जिसके बाद  नेहरू-गांधी परिवार से अगला कोई प्रधानमंत्री नहीं आया। जब पहली बार बोफोर्स का नाम उछला तब देश के प्रधानमंत्री थे राजीव गांधी। बोफोर्स घोटाले की आग में उनकी सरकार भस्म हो गई और सत्ता के सर्वोच्च केंद्र से नेहरू-गांधी परिवार का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप का अंत हो गया। यह बोफोर्स घोटाला ही था जिसने राजीव गांधी सरकार गई। और वीपी सिंह की सरकार बनी।

राजीव सरकार 

            1984 में प्रधानमंत्री और राजीव गांधी की मां इंदिरा गांधी की हत्या हो चुकी थी। कुछ ही समय अंतराल में आम चुनाव हुए। राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को 400 से भी ज्यादा सीटें मिली। ऐसा बहुमत इंदिरा गांधी तो क्या जवाहरलाल नेहरू को भी नहीं मिला था। राजीव गांधी ने इस प्रचंड बहुमत के बाद कंप्यूटर क्रांति की बात की, भ्रष्टाचार से जंग की बात की। अपनी इसी भाषण में उन्होंने कुछ नेताओं पर सत्ता के दलाल कहकर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। इस भाषण के कुछ अंश इस प्रकार हैं- आजादी के बाद संविधान में वायदा करा था कि हम हमारे लोकतंत्र की जो तीसरा कतार है, उसे हम मजबूत करेंगे। पहले और दूसरे स्तंभ जो कि दिल्ली और राजधानियों में चल रहे हैं, वह काफी मजबूत स्तर पर पहुंच चुके है। अब हमें निचले स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करना है। 
           कुछ ही समय बाद 1985 में कांग्रेस की स्थापना का शताब्दी वर्ष था। इसके लिए एक विशाल अधिवेशन का आयोजन किया गया। राजीव गांधी ने बेहद ही आक्रामक भाषण दिया। राजीव गांधी उस समय कांग्रेस अध्यक्ष भी थे। उन्होंने इस अधिवेशन में लगातार 75 मिनट तक बेहद आक्रामक रूप से भाषण दिया, सत्ता के दलाल शब्द का प्रयोग भी यहां उन्होंने कई बार किया। राजीव गांधी की छवि पर लोगों को भरोसा होने लगा था। वो भारतीय राजनीति में अब नए मिस्टर क्लीन बनकर उभरे थे।

प्रारम्भिक समस्याऐं 

             एक महीने बाद ही जब यह चिट्ठी मीडिया के सामने आई तो प्रणब मुखर्जी को पार्टी से निकाल दिया। जानकारों के अनुसार राजीव गांधी द्वारा किए गए प्रणब मुखर्जी के खिलाफ इस फैसले के पीछे असल जिम्मेदार अरुण नेहरू थे। दरअसल अरुण नेहरू का कद सत्ता और पार्टी में काफी बढ़ गया था। अरुण नेहरू, अरुण सिंह और विश्वनाथ प्रताप सिंह उस समय सत्ता के गलियारे में यह 3 नाम बेहद महत्वपूर्ण थे। अरुण नेहरू उस समय देश के गृह राज्य मंत्री थे, आंतरिक सुरक्षा का स्वतंत्र प्रभार भी उनके पास था। लेकिन जल्द ही हालात बदल गए। 26 अक्टूबर 1986 को राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के 2 साल के अंदर ही अपनी कैबिनेट के 26वें फेरबदल में अरुण नेहरू को कैबिनेट में जगह नहीं दी। नाते में भाई और गांधी नेहरू परिवार के करीबी और सलाहकार अरुण नेहरू इस बात से खफा खफा हुए। लेकिन यह राजीव गांधी की छिटपुट दिक्कतें ही थी। उनकी असली समस्या अब शुरू होने वाली थी और इस समस्या का कारण बने खुद उन्हीं के वित्तमंत्री वी पी सिंह।             इसी बीच कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष कमलापति त्रिपाठी ने 26 अप्रैल 1986 को 11 पेज की एक चिट्ठी प्रधानमंत्री को भेजी, चिट्ठी का मसौदा पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने तैयार किया था। जिसमें कहा गया था कि वो सत्ता का दलाल शब्द का प्रयोग किन लोगों के लिए कर रहे हैं, क्या यह वह लोग हैं जिन्होंने पार्टी और संगठन को मजबूत करने के लिए कोई कदम नहीं उठाया और अब दूसरों की मेहनत के फलस्वरुप सत्ता की रेवड़ियां बांट रहे हैं और सत्ता सुख का भोग कर रहे हैं? नवंबर 1984 से लेकर जनवरी 1986 तक आप एक महत्वपूर्ण मंत्रालय में 5 बार मंत्री बदल चुके हैं, जबकि कांग्रेस वर्किंग कमेटी में 19 बार परिवर्तन कर चुके हैं। आपके ऐसे कदम न केवल असमंजस की स्थिति उत्पन्न न कर रहे हैं, अपितु अस्थिरता का माहौल भी बन रहा है। इस चिट्ठी में मुख्य निशाने पर थे स्वयं राजीव गांधी। अभी उन्हें सत्ता संभाले डेढ़ साल भी नहीं हुआ था कि पार्टी के अंदर उनके कामकाज को लेकर शंका की सुगबुगाहट काफी हद तक उभर कर सामने आने लगी थी।
           वीपी सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके थे। उन्हें आगे बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ संजय गांधी का माना जाता है। राजीव गांधी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्हें केंद्र में वित्त मंत्रालय सौंपा। वित्त मंत्री के रूप में बी पी सिंह ने टैक्स चोरी करने वाली बड़ी कंपनियों के खिलाफ बड़ा अभियान छेड़ दिया। इस अभियान में वीपी सिंह का साथ दे रहे थे उनकी दो सहयोगी, प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख भूरेलाल और राजस्व सचिव विनोद पांडे। दोनों के पास ही वित्त मंत्री की टैक्स चोरी करने वाली कंपनियों के खिलाफ सख्त कारवाई करने के लिखित निर्देश थे। वीपी सिंह अपने इन कदमों से बेहद लोकप्रिय हुए। उनकी छवि एक बेहद ईमानदार नेता के रूप में बनने लगी। सत्ता के गलियारों में उनका कद भी लगातार बढ़ने लगा। इस दौरान कस्टम रेवन्यू भी 7% बढ़ा और एक्साइज रेवन्यू 12%।boforse scam
             

फेयरफैक्स मुद्दा और राजीव सरकार 

             इसी बीच जब वी पी सिंह 1987 का बजट तैयार कर रहे थे राजीव गांधी ने एक और बड़े फेरबदल का मन बना लिया। उन्होंने देश की रक्षा जरूरतों का हवाला देते हुए वित्त मंत्रालय से विश्वनाथ प्रताप सिंह का स्थानांतरण रक्षा मंत्रालय में कर दिया। जानकारों का मानना है कि इसके पीछे कुछ अहम कारण थे, रक्षा जरूरतों का तो महज एक बहाना था। एक तरफ जहां VP सिंह का कद बड़ा होता जा रहा था, तो वही सबसे प्रमुख कारण स्थानांतरण का उन व्यवसायिक घरानों की लॉबिंग थी जिनके खिलाफ वी पी सिंह अभियान चला रहे थे। दरअसल इस लविंग में सबसे प्रमुख जो नाम उभर कर आया वह अमिताभ बच्चन का था।अमिताभ बच्चन और उनके भाई के खिलाफ बी पी सिंह ने मुहीम छेड़ दी थी क्योंकि वह इलाहाबाद से वी पी सिंह के सामने थे। अमिताभ बच्चन और बी पी सिंह की इसी तक्रार को कई रुप में राजीव गांधी के सामने लाया गया और व्यवसायिक लॉबिंग के दबाव से राजीव गांधी ने बी पी सिंह का मंत्रालय बदल दिया।

         

             फरवरी 1987 को प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक भूरेलाल ने राजस्व सचिव विनोद पांडे को एक नोट भेजा, जिसके अनुसार भूरेलाल ने अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान वहां की एक जासूसी एजेंसी फेयरफैक्स को टैक्स चोरी और विदेशी मुद्रा में हेरफेर करने वालों की जासूसी कर उनके खिलाफ सबूत इकट्ठा करने का काम सौंपा गया है। जिसकी बदले में फेयरफैक्स को निर्धारित मानदेय देय होगा। दरअसल प्रवर्तन निदेशालय को फेयरफैक्स को जासूसी के इस काम में लगाने की पहला सुझाव वाणिज्यिक मामलों के विशिष्ट जानकार एस मूर्ति ने दी थी। नोट भेजने की कुछ ही दिनों में भूरेलाल को प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक पद से हटा दिया गया, तो रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने पुराने मंत्रालय ने एक नोट भेजा। जिसमें कहा गया कि भूरेलाल ने फेयरफैक्स को उनकी मौखिक आदेश पर ही जासूसी का काम सौंपा है। मंत्रालय पत्राचार मीडिया में लीक हो गया। इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह खुद कांग्रेस के नेताओं के ही निशाने पर आ गये। कहा जाने लगा कि राजीव गांधी की सरकार गिराने के लिए वित्त मंत्री ने विदेशी कंपनी को काम पर लगाया है। साथ ही यह भी आरोप लगा कि देश की सुरक्षा को खतरे में डाल कर विदेशी एजेंसी को जासूसी का काम सौंपा गया है। 31 मार्च 1987 को लोकसभा में बोलने के लिए खड़े हुए उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी नेता दिनेश सिंह उन्होंने आरोपों की झड़ी लगा दी- क्या वित्त मंत्री ने फेयरफैक्स की पृष्ठभूमि का ठीक तरह से आंकलन किया है? क्या फेयरफैक्स आर्थिक मामलों की जासूसी करने लायक है? क्या वित्त मंत्री रहते समय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी से पूछे बिना फेयरफैक्स को काम दे दिया? मैं यह जानना चाहता हूं कि वी पी सिंह जी का प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अंधेरे में रखने के लिए क्या मकसद था?

HDW पनडुब्बी मामला 

            एक के बाद एक कांग्रेसी नेताओं ने फेयरफैक्स के मामले पर विश्वनाथ प्रताप सिंह को घेरना शुरु कर दिया। साफ था फेयरफैक्स के नाम के बहाने वीपी सिंह को राजनीति के किनारे करना। राजनीति के माहिर और मजे हुए खिलाडी विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसका जवाब ढूंढ लिया। जवाब था जर्मनी की नौसैनिक कंपनी HDW से पनडुब्बी खरीद का मामला। दरअसल जर्मनी की पनडुब्बी निर्माता कंपनी HDW से  पहली बार पनडुब्बी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में खरीदी थी। राजीव गांधी के कार्यकाल में दूसरी बार सौदा हुआ था। विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसकी जांच करवाई कि  क्या पनडुब्बी की कीमत कम हो सकती है? रक्षा मंत्रालय इसके लिए पहले ही स्वीकृति दे चुका था। तत्कालीन पश्चिमी जर्मनी के भारतीय राजदूत ने यह संदेश भेजा रुपयों की कीमत अब कम नही हो सकती है, क्योंकि भारतीय दलालों को कमीशन की रकम अदा कल दी गई है। प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनकी रक्षा मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह की बीच की खाई अब चोडी होती नजर आ रही थी। तकरार का यह आलम दोनों तरफ बढ़ता जा रहा था। फेयरफेक्स पर विश्वनाथ प्रताप सिंह घिरे हुए थे। उन्होंने भी HDW पनडुब्बी को अपना मास्टर स्ट्रोक बनाया।

             अप्रैल 1987 कों राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के दो सेवानिवृत्त जजों का कमीशन बनाया। जो फेयरफैक्स मामले  की जांच करने वाला था। जबाव में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपना मोहरा चलाया। 19 अप्रैल 1987 को बिना कैबिनेट की मंजूरी के प्रेस कॉन्फ्रेंस  में उन्होंने HDW  सौडे की जांच के आदेश दे दिए।  कांग्रेस के तत्कालीन दो दिग्गज नेताओं के रास्ते अब अलग हो रहे थे।
           प्रधानमंत्री राजीव गांधी और राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के संबंध पहले से ही खराब चल रहे थे। वीपी सिंह और राजीव गांधी के संबंधों में एक ओर मोड़ 25 मार्च 1987 को आया। जब वी पी सिंह राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह से मिले। राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने वी पी सिंह को सरकार बनाने का दावा पेश करने की सलाह दी और यह भी आश्वासन दिल है कि वह बी पी सिंह को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाएंगे। लेकिन वीपी सिंह ने उस समय राष्ट्रपति के इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। पूर्व उपराष्ट्रपति आर वेंकटरमन  ने भी इस तरह का प्रस्ताव मिलने की बात अपनी किताब माई प्रेजिडेंशियल ईयर में किया है। इसी तरह के दावे एनडी तिवारी और अर्जुन सिंह ने भी की थी।
             इन सबके बीच में एक बात सुस्पष्टता तय हो चुकी थी कि अब विश्वनाथ प्रताप सिंह की जगह राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में नहीं है। वीपी सिंह अब मंत्रिमंडल से इस्तीफा देने की तैयारी कर चुके थे। जांच के आदेश देना उनकी इसी रणनीति का एक हिस्सा था। वीपी सिंह ने 12 अप्रैल 1987 को मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इसके 4 दिन बाद ही 16 अप्रैल 1987 को रेडियो पर एक ऐसी खबर प्रसारित हुई, जिसने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया एवं इसकी नई दिशा एवं दशा भी तय कर दी।

बोफोर्स घोटाले  की आग

शुरुआती खुलासे  

             यह खबर भारतीय रेडियो पर प्रसारित होने की बजाय यूरोपीय देश स्वीडन की रेडियो पर प्रसारित हुई। जिसमें कहा गया कि स्वीडन की हथियार बनाने वाली कंपनी बोफ़ोर्स  ने 155 mm होवित्जर गन के  कॉन्ट्रैक्ट पाने के सिलसिले में कई भारतीय राजनीतिज्ञों  और अधिकारियों को लाखों डॉलर की रिश्वत दी है।
             इस खबर को सुनने वालों में जिनेवा में रहने वाली भारतीय मूल की पत्रकार चित्रा सुब्रमण्यम भी थी। चित्रा सुब्रमण्यम और द हिंदू अखबार के संपादक एन राम ने इस खबर की पड़ताल शुरू कर दी। इसके बाद एक के बाद एक नए खुलासे होने लगे। स्वीडिश रेडियो का आरोप था कि बोफोर्स ने कॉन्ट्रैक्ट हासिल करने के लिए 64 करोड रुपए की रिश्वत बांटी है। फेयरफैक्स और HDW  पनडुब्बी का मुद्दा पहले से ही भारतीय राजनीति में गर्माया  हुआ था। अब इस नई खबर ने भारतीय राजनीति को बुरी तरह से हिला कर रख दिया।
            जिस समय यह रिपोर्ट प्रकाशित हुई उस समय संसद का बजट सत्र चल रहा था। संसद में भयंकर हंगामा हुआ। इस रिपोर्ट के प्रकाशन के 4 दिन के बाद ही राजीव गांधी ने संसद में अपना वक्तव्य दिया। जिसमें उन्होंने यहां तक कह दिया कि इस सौदे में ना मुझे और ना मेरे परिवार की किसी व्यक्ति को रिश्वत मिली है। दरअसल जब यह मुद्दा उछला तब राजीव गांधी पर किसी ने व्यक्तिगत आरोप नहीं लगाए थे। मामला महज यह था कि सरकार की घोषणा के बावजूद इस सौदे में बिचौलियों की भूमिका रही है। खुद बोफ़ोर्स, ने यह आश्वासन दिया था, कि सौदे को अपने पक्ष में करने के लिए बिचौलियों की भूमिका नहीं ली जाएगी। अब सवाल यह उठने लगा था कि क्या बोफोर्स ने सौदे को अपने पक्ष में करने के लिए नेताओं और अधिकारियों को गलत तरीकों से प्रभावित किया था? मसला इसलिए भी जटिल हो चला था, क्योंकि जब बोफोर्स तोप खरीदने का सौदा हुआ तब रक्षा मंत्रालय खुद राजीव गांधी के पास था।

बॉफोर्स और राजीव गाँधी 

             तोप खरीद में दो कंपनियों के बीच में सीधी टक्कर थी। पहली फ्रांस की शोफमां और दूसरी स्वीडन की बोफोर्स। इस खरीद के लिए दिसंबर 1985 से 24 मार्च 1986 तक बातचीत चली। इस बातचीत के महल 24 घंटो के अंदर ही राजीव गांधी ने इस सौदे के लिए अपनी स्वीकृति दे दी, तो क्या खरीद पहले से ही निश्चित हो चुकी थी? स्वीडन में तत्कालीन भारतीय राजदूत बीएम ओझा ने अपनी किताब में लिखा है कि राजीव गांधी स्वीडिश प्रधानमंत्री पोल में की मृत्यु के बाद शोक व्यक्त करने के लिए स्वीडन आए थे। 15 मार्च 1986 को राजीव गांधी की मुलाकात स्वीडन के नए प्रधानमंत्री से हुई।  नए प्रधानमंत्री अन्गुएर कार्लसन से राजीव गांधी ने आश्वासन दिया, कि तो बोफोर्स से ही खरीदी जाएगी। राजीव गांधी के कहे मुताबिक तोप का कॉन्ट्रैक्ट बोफोर्स को दे दिया गया। इस कॉन्ट्रैक्ट में बोफोर्स को 410 155 mm होवित्जर गन देने का कॉन्ट्रैक्ट मिला। जिस दिन बोफोर्स को यह कॉन्ट्रैक्ट मिला, उस दिन स्वीडन में बोफोर्स के मुख्यालय पर भारत का तिरंगा झंडा लहराया गया। पूरे स्वीडन में खुशियां मनाई गई। लेकिन एक साल बाद ही हालात बदल गए।

बोफोर्स जाँच से हटती सरकार 

             16 अप्रैल 1987 को स्वीडिश रेडियो ने घोटाले की खबर चलाई। अगले ही दिन भारतीय संसद और सड़कों पर राजीव गांधी सरकार को घेरा गया। प्रारंभ में राजीव गांधी सरकार ने स्वीडन सरकार पर दबाव बनाया कि वह स्वीडिश रेडियो की इस रिपो,र्ट का खंडन क।रें बीएम ओझा ने लिखा है कि इस बाबत वो स्वीडिश अधिकारियों से मिले। स्वीडिश अधिकारी ने यह कहकर खंडन करने से मना कर दिया, कि आरोप स्वीडन की एक निजी कंपनी के खिलाफ लग रहे हैं। एसे में स्वीडन सरकार द्वारा स्वीडिश रेडियो की खबर का खंडन करने की बजाय बेहतर यह होगा कि जांच की जाए। इस पर भारत सरकार ने BN ओझा को स्वीडिश सरकार से जांच की औपचारिक अनुरोध करने के निर्देश दिए। लेकिन कुछ समय बाद ही स्वीडन सरकार ने जान से इंकार कर दिया। क्योंकि 27 अप्रैल 1987 को राजीव गांधी ने फोन कर स्वीडन के प्रधानमंत्री को यह कहा कि क्योंकि अब बोफोर्स ने यह कह दिया है कि उसने सौदे के लिए किसी बिचौलिए को रिश्वत नहीं दी है अतः अब किसी भी जांच का कोई प्रयोजन शेष नहीं रह जाता है। एक तरफ भारत सरकार किसी भी दलाली की बात को मानने के लिए तैयार नहीं थी, तो दूसरी तरफ स्वीडन सरकार पर भी जांच रोकने का दबाव डाल रही थी।
            इन सबके बीच में राजीव गांधी सरकार की खिलाफत कम नहीं हुई। इस खिलाफत का जवाब राजीव गांधी ने दिल्ली की एक जनसभा में दिया। उन्होंने कहा भारत की आजादी कब छीनी? जब मीर जाफर और राजा जयचंद जैसे गददारों ने विदेशी ताकतों से हाथ मिलाया। आप ऐसे लोगों से सतर्क रहें। यह लोग विदेशी ताकतों से हाथ मिला कर देश के हितों को बेच रहे हैं। दिल्ली की इस रैली में राजीव गांधी ने राजा और गद्दार शब्द का प्रयोग किसके लिए किया? यह किसी से छुपा नहीं था। दरअसल वीपी सिंह एक पुरानी रियासत मांडा के राजा थे। इसका जवाब बी पी सिंह ने भी दिया। उन्होंने इसके लिए राजीव गांधी पर तीखी जुबानी हमले किये।

बोफोर्स पर टूटती सरकार 

             राजीव गांधी और वीपी सिंह की लड़ाई अब सड़क पर लड़ी जाने लगी और दोनों ही नेता इस लड़ाई में बहुत आगे निकल चुके थे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ कांग्रेस पार्टी में कई नेता खिलाफत पर उतर आए थे। इनमें विद्याचरण शुक्ल, आरिफ मोहम्मद खान और अरुण नेहरू जैसे बड़े नेता भी शामिल थे। आरिफ मोहम्मद खान शाहबानो मसले को लेकर राजीव गांधी से खफा थे। इन असंतुष्ट नेताओं की 15 जुलाई 1987 को हरिद्वार में बैठक हुई। उसी दिन शाम को इस बैठक में शामिल होने वाले नेताओं मैं से विद्याचरण शुक्ल, आरिफ मोहम्मद खान और अरुण नेहरू को कांग्रेस पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। कांग्रेस के इन नेताओं के पार्टी से निष्कासन का विरोध करते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपनी राज्यसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। VP सिंह के इस कदम से नाराज राजीव गांधी ने बी पी सिंह का पता भी कांग्रेस पार्टी से काट दिया।
            दरअसल अरुण सिंह के सरकार एवं पार्टी से निष्कासन के पीछे एक और वजह भी थी। अरुण सिंह रक्षा राज्य मंत्री थे। उन्होंने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को एक नोट भेजा। जिसमें कहा गया कि स्वीडन के नेशनल ऑडिट ब्यूरो ने यह साफ कर दिया है कि बोफोर्स ने सोदे  को अपने पक्ष में करने के लिए बिचौलियों को दलाली दी है, जो हमारी नियमों के खिलाफ है। हमने सोदे से पहले हमारी स्थिति स्पष्ट करते हुए स्वीडन की सरकार और बोफोर्स को यह बता दिया था, कि बिचौलियों को दलाली हमारी नियमों का उल्लंघन होगा। अरुण सिंह ने आगे कहा कि अगर बोफोर्स इस मामले में हमें तमाम जानकारियां उपलब्ध नहीं करवाती है, तो हम यह सौदा रद्द कर देंगे। क्योंकि बतोर सरकार हमें चुनौती मिल रही है। अरुण सिंह के इस नोट पर सेना प्रमुख के सुंदर जी की राय मांगी गई। सेना प्रमुख ने यह स्पष्ट कर दिया कि बोफोर्स को करार तोड़ने की धमकी दी जानी चाहिए। अगर इसके बावजूद भी वह बिचौलियों की जानकारी नहीं देती है, तो हमें करार तोड़ देना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में तोप खरीद में ज्यादा से ज्यादा 2 साल का वक्त लग सकता है और वर्तमान सुरक्षा दृष्टि से हम इतना रिस्क ले सकते हैं। राजीव गांधी के बेहद ही करीबी दोस्त और दून स्कूल में उनके साथ पढ़े रक्षा राज्य मंत्री अरुण सिंह भी अब इस मामले पर जांच की मांग कर रहे थे। लेकिन राजीव गांधी ने जांच से साफ इंकार कर दिया। ऐसी परिस्थितियों में 18 जुलाई 1987 को अरूण सिंह ने भी अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।

बोफोर्स  घोटाले पर झुकी सरकार 

            अरुण सिंह के इस्तीफे के बाद संसद और बाहर राजीव गांधी की पुरजोर खिलाफत और तेज हो गई। लिहाजा हारकर राजीव गांधी ने 30 सदस्य संयुक्त संसदीय समिति का गठन इसकी जांच के लिए किया। विपक्ष इस समिति में शामिल नहीं हुआ। इस समिति ने राजीव गांधी को क्लीन चिट दे दी।
            संसद की संयुक्त संसदीय समिति जब तक राजीव गांधी सरकार को क्लीनचिट देती, उससे पहले ही चित्रा सुब्रमण्यम और द हिंदू अखबार के संपादक एन राम ने एक लेख के जरिए बड़ा खुलासा कर दिया। तारीख थी 23 अप्रेल 1988।  इस लेख में बताया गया कि बोफोर्स कंपनी ने स्विस बैंक के पिटको नाम के कोडेड अकाउंट में करोड़ों की रकम जमा की है। यह अकाउंट जीपी हिंदुजा का था। यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि सरकार ने कहा कि बोफोर्स द्वारा किए गए इस ट्रांजैक्शन का तोप खरीद सौदे से कोई संबंध नहीं है। इसके बाद एक के बाद एक कई और नाम बोफोर्स तोप खरीद सौदे से जुड़ते गए, जब चित्रा सुब्रमण्यम को मार्टिन आडोयो की डायरी मिली। मार्टिन आडोयो, जब बोफोर्स सौदा हुआ तब बोफोर्स कंपनी की प्रमुख था। इस डायरी में बोफोर्स सौदे से संबंधित हिसाब किताब का विवरण था। लेकिन यह डायरी कोडेड भाषा में थी। जिसमें कुछ प्रमुख शब्द Q, R, B, G आदि थे। डायरी मिलने के बाद बोफोर्स घोटाले की परतें एक के बाद एक सस्पेंस थ्रिलर की तरह खुलने लगी। इस डायरी से यह  बात साफ़ हो गई, कि बोफोर्स तोप खरीद सौदे में तीन हथियार एजेंट कंपनियों को रिश्वत दी गई थी। यह तीन कंपनियां थी- पिटको, स्विसका और AE  सर्विसेज। पिटको GP हिंदुजा की कंपनी थी जबकि स्विसका के मालिक वीन चड्डा थे। AE सर्विसेस किसकी कंपनी थी? इसकी तहकीकात हो रही थी।

VP सिंह सरकार 

              इन सब उठापटक के बीच में वी पी सिंह को बड़ा फायदा हुआ। कांग्रेस छोड़कर भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम का बड़ा चेहरा बन चुकी बी पी सिंह को जल्द ही मौका मिला। इलाहाबाद से अमिताभ बच्चन ने अपनी सीट खाली कर दी। उपचुनाव में बी पी सिंह की इलाहाबाद सीट चुनने का एक कारण यह भी था कि इलाहाबाद से हमेशा कांग्रेस ही जीती थी। बहुत सोच समझकर राजीव गांधी ने लाल बहादुर शास्त्री के बेटे सुनील शास्त्री को VP सिंह के सामने मैदान में उतारा। अमिताभ बच्चन के सीट खाली करने के VP सिंह के खिलाफत के साथ उनकी मतभेदों के बाद बोफोर्स घोटाले में उनके नाम जोड़ने के कारण उन्होंने इस्तीफा दिया था। इलाहाबाद की जंग एक बड़ा टर्निंग प्वाइंट साबित हुआ। बी पी सिंह की इन उप चुनाव में जबरदस्त जीत हुई और राजीव गांधी की चुनावी यारों का सिलसिला भी यहीं से शुरू हुआ।
            वीपी सिंह विद्या चरण शुक्ल, रामधन, अरुण नेहरू और अरुण सिंह ने मिलकर जनमोर्चा बनाया। देश में आम चुनावों की चुनावी बिसात बिछने लगी थी। VP सिंह इस चुनाव में भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बहुत बड़ा चेहरा बनकर उभरे थे। उन्होंने बोफोर्स मामले को संसद से सड़क तक चुनावी मुद्दा बना दिया। चुनावी जनसभाओं में उन्होंने राजीव गांधी पर आरोप लगाया कि उन्होंने बोफोर्स सौदे में लोटस नाम के स्विस बैंक अकाउंट में कमीशन की मोटी रकम ली है और यह आश्वासन दिया कि उनकी सरकार बनने के बाद वे पूरे मामले की निष्पक्ष जांच कर पर्दाफाश करेंगे।
            इन चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। 1984 के आम चुनाव में 400 से भी ज्यादा सीटें जीतने वाली कांग्रेस महज 196 सीटों पर सिमट गई। इसके बावजूद कांग्रेस उन चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। राष्ट्रपति ने राजीव गांधी को पुनः सरकार बनाने का निमंत्रण दिया। लेकिन राजीव गांधी ने मना कर दिया। बी पी सिंह के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय मोर्चा को 146 सीट मिली। भारतीय जनता पार्टी ने बी पी सिंह के समर्थन का ऐलान कर दिया, जिनके पास 86 सांसद थे। वाम दलों ने अपने 52 सांसदों के साथ वी पी सिंह सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया और वीपी सिंह देश के अगले प्रधानमंत्री चुने गए।

बोफोर्स घोटाले की CBI जाँच और अदालती कार्यवाही 

            बी पी सिंह ने राजीव गांधी और बोफोर्स मामले की जांच का जिम्मा सीबीआई को सौंप दिया। लेकिन CBI  जांच को किसी मुकाम तक पहुंचा पाते, उससे पहले ही 11 महीनों के अंदर ही बी पी सिंह सरकार गिर गई। 
            बोफोर्स मामले से जुड़ा बड़ा खुलासा स्विटजरलैंड की अदालत में हुआ। वहां पता चला कि AE सर्विसेज के असली मालिक उतावियो क्वात्रोकी और उनकी पत्नी मारिया क्वात्रोकी है। बोफोर्स मुद्दे की मीडिया में आने के समय उतावियो क्वात्रोकी भारत में ही था। लेकिन जब 1993 में स्विट्जरलैंड की अदालत ने AE सर्विसेज को बोफोर्स घोटाले के साथ जोड़ दिया तो वह भारत छोड़कर चला गया। यह आरोप लगाया जाता रहा कि  उतावियो क्वात्रोकी गांधी नेहरु परिवार की करीबी था। वो अक्सर गांधी नेहरु परिवार के सदस्यों के साथ दिखता भी रहते था।
             1999 में सीबीआई ने बोफोर्स मामले में चार्जशीट दायर कर दी। इस में सीबीआई ने वीन चड्ढा, उतावियो क्वात्रोकी, पूर्व रक्षा सचिव भटनागर, बोफोर्स कंपनी और उसकी प्रमुख मार्टिन आडोयो के खिलाफ चार्जशीट दायर की। चार्जशीट में मैं पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को भी आरोपी बनाया गया था लेकिन उनके खिलाफ ट्रायल नहीं चला क्योंकि उनकी मृत्यु हो चुकी थी। सन 2000 में सीबीआई ने सप्लीमेंट्री चार्जशीट दायर की जिसमें श्रीचंद हिंदुजा, गोपीचंद हिंदुजा और प्रकाश चंद्र हिंदुजा को भी आरोपी बनाया गया। सन 2002 में घोटाले के दो प्रमुख आरोपी विन चड्ढा और एसके भटनागर का देहांत हो गया। सन 2004 में दिल्ली हाईकोर्ट ने केस को खारिज कर दिया। श्रीचंद हिंदुजा, गोपीचंद हिंदुजा और प्रकाशचंद हिंदुजा के खिलाफ भी 2005 में केस खत्म कर दिया। सन 2013 में उतावियो क्वात्रोकी का भी निधन हो गया। सन 2011 में सीबीआई ने दिल्ली हाईकोर्ट में बोफोर्स केस बंद करने की मांग की थी, जिसे अदालत ने मान लिया था।
             पूरे प्रकरण के दौरान कई सरकारें बनी, कई प्रधानमंत्री बने, कई सरकारें गिरी कई प्रधानमंत्रियों की कुर्सी छीनी गई, सीबीआई के कई निदेशक आए और अदालती प्रकरण में अनेक उतार चढ़ाव भी रहे लेकिन मुख्य मुद्दा यह था कि वह कमीशनखोर कौन है? जो आज तक न सीबीआई, न इस देश की अदालत, न कोई राजनीतिक दल, ना कोई राजनेता और ना ही कोई संवैधानिक संस्था देश की जनता को यह बता पाई है कि वह रिश्वतखोर, वह गुनाहगार कौन था?

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