Tuesday 2 January 2018

नानावटी केस, 3 गोलियां चली औऱ रुक गया पूरा देश

By Anuj beniwal
           वो दिन, 27 अप्रैल, 1959 का दिन था। बंबई पुलिस के उप कमिश्नर जॉन लोबो मुंबई की चिलचिलाती गर्मी से बचने के लिए नीलगिरि की पहाड़ियों में जाने की योजना बना रहे थे।nanawati murder case लेकिन तभी शाम पांच बजे के करीब उनके फ़ोन की घंटी बज उठी। भारतीय नौसेना के कमांडर सैमुअल लाइन पर थे। आवाज आई "कमांडर नानावती आप से मिलने आ रहे हैं, अभी वो मेरे पास ही थे।" लोबो ने पूछा, 'सर, हुआ क्या है?' सैमुअल का जवाब आया, 'उनका एक आदमी से झगड़ा हुआ था, जिसे उन्होंने गोली मार दी है।'


           कुछ समय बाद लोबो को अपने कमरे के बाहर एक आवाज़ सुनाई दी, 'लोबो साहब का कमरा कहाँ है?' नौसेना की सफ़ेद वर्दी पहने हुए एक लंबा छरहरा शख़्स उनके कमरे में दाखिल हुआ। उसने अपना परिचय कमांडर कवाल नानावती कह कर दिया। नानावती ने बिना कोई वक्त ज़ाया करते हुए कहा, 'मैंने एक व्यक्ति को गोली मार दी है।' लोबो ने जवाब दिया, ' ... और वो मर चुका है। अभी-अभी गामदेवी पुलिस स्टेशन से मुझे संदेश आया है।'
           ये सुनते ही नानावती का चेहरा पीला पड़ गया। निरापद में कुछ सेकेंड तक कोई कुछ नहीं बोला। आखिर लोबो ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा, 'क्या आप एक कप चाय पीना पसंद करेंगे?' 'नहीं, मुझे सिर्फ़ एक ग्लास पानी काफी होगा।,' पसीने से तर-बतर कमाण्डर नानावती ने जवाब दिया।
           किस्सा कुछ यूँ था, उस दिन आईएनएस मैसूर के सेकेंड-इन-कमान लेफ़्टिनेंट कमांडर कवास नानावती कुछ दिन बाहर रहने के बाद जब वापस अपने घर लौटे और अपनी अंग्रेज़ पत्नी सिल्विया का हाथ अपने हाथों में लेना चाहा, तो सिल्विया ने हाथ झटक दिया। आहत कमाण्डर नानावती ने जब सिल्विया से पूछा, 'क्या अब तुम मुझसे प्यार नहीं करतीं हो?', सिल्विया ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। जब कमाण्डर नानावती ने फिर से ज़ोर दे कर पूछा, 'क्या हमारे बीच कोई और आ गया है?' तो इसका जो उत्तर सिल्विया ने दिया, उसे ना सुनने को नानावती पूरी दुनिया क़ुर्बान कर सकते थे।
            उस समय कमांडर नानावटी कुछ नहीं बोले और थोड़ी देर बाद दोनों अपने कुत्ते को लेकर डॉक्टर को दिखाने चले गए। मानो कुछ हुआ ही ना हो। लौटकर उन्होंने सोरबेदार कटलेट्स, प्रॉन करी और चावल का भोजन किया। शाम को पहले से तय कार्यक्रम के अनुरूप ही कमांडर नानावती ने सिल्विया और बच्चों को मुंबई के मेट्रो सिनेमा छोडा। जहां अंग्रेजी फिल्म टॉम थब का मैटिनी शो देखने का कार्यक्रम था।
            इसके बाद नानावती अपने पोत पर गए। जहाँ से उन्होंने .38 स्मिथ एंड बेसन रिवॉल्वर निकाली और अपनी पत्नी के प्रेमी प्रेम आहूजा को उनके घर पर जाकर गोलीयों से भून दिया। उस समय प्रेम आहूजा नहाने के बाद, कमर पर तौलिया लपेटे, आईने के सामने अपने बालों में कंधी कर रहे थे।
            'इन हॉट ब्लड द नानवती केस दैट शुक इंडिया' की लेखिका बची करकरिया बताती हैं, ''मुझे इस केस में सबसे ख़ास बात ये लगी कि ये मामूली हत्या का केस इतनी ऊँचाई तक पहुंच गया कि प्रधानमंत्री नेहरू तक को इसके बारे में प्रेस को जवाब देना पड़ा। जब हाईकोर्ट ने कमाण्डर नानावती को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई, तो चार घंटे के अन्दर ही बंबई के राज्यपाल ने आदेश दे दिया, कि इस फ़ैसले को तब तक स्थगित रखा जाए जब तक कमाण्डर नानावती की अपील पर अन्तिम फ़ैसला नहीं आ जाता है। इसकी समीक्षा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को बैठना पड़ा। एक अडल्ट्री के केस में ऐसा पहली बार हुआ था। इस मामले में रक्षा मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक को बीच में पड़ना पड़ा। यह एक अजीब-सा केस था, जिसमें प्रेम था, दग़ाबाज़ी थी, ऊँचे समाज का अपराध था. यही वजह है कि इस घटना को हुए 58 साल बीत चुके हैं, लेकिन लोगों की दिलचस्पी अभी तक इस केस में बनी हुई है।''
          उस समय भारत के चोटी के नामचीन वकीलों ने दोनों पक्षों की ओर से अपनी अपनी दलीलें रखीं। कमाण्डर नानावती ने मशहूर क्रिमिनल वकील कार्ल खंडालवाला की सेवाएं लीं। खंडालवाला ने ये कहते हुए अपने तर्कों का अंत किया, कि वो अपने मुवक्किल के लिए सहानुभूति या दया की मांग नहीं करेंगे क्योंकि उनकी नज़रों में उन्होंने कोई अपराध किया ही नहीं है।
           बाद में रजनी पटेल, वाई. वी. चंद्रचूड़, नैनी पालखीवाला, एम. सी. सीतलवाड, सी. के. दफ़्तरी और गोपाल स्वरूप पाठक ने एक न एक पक्ष की ओर से अदालती कार्यवाही में हिस्सा लिया। उस ज़माने में अपना करियर शुरू कर रहे राम जेठमलानी को तो इस मामले ने राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित कर दिया।
nanawati murder case
           बची करकरिया बताती हैं, ''उस समय राम जेठमलानी काफ़ी जूनियर वकील थे और पब्लिक प्रॉसीक्यूटर नहीं थे। प्रेम आहूजा की बहन मैमी आहुजा ने एक पर्यवेक्षक की तरह उनकी सेवाएं ली थीं। राम जेठमलानी उस समय भी बहुत होशियार वकील थे। उनका तर्क था कि अगर खंडालवाला की इस दलील को सही माना जाए कि गोलियाँ हाथापाई के बाद चलीं, तो प्रेम आहुजा का तौलिया गोलियाँ लगने के बाद भी उनकी कमर से चिपका क्यों रह गया? उनकी दलीलों की वजह से ही डिफ़ेस की इतनी बड़ी कहानी धराशाई हो गई।''
            प्रेम आहूजा की तरफ़ से बहस कर रहे सी. एम. त्रिवेदी ने कार्ल खंडालवाला की उस दलील की काट पेश की, कि ये गोलियाँ दुर्घटनावश चली थीं और नानावती का इरादा प्रेम अहूजा को मौत के घाट उतारने का बिल्कुल भी नहीं था। अदालत में बोलते हुए त्रिवेदी ने कहा, ''मेरे प्रतिद्वंदी की बातें, ठोस सबूतों और दलीलों की जगह नहीं ले सकतीं। मुझे तो बहुत शंका है कि वह अदालत में बोल रहे हैं या किसी नाटक के मंच पर। मैं जूरी को आगाह करना चाहता हूँ कि इस व्यक्ति के दिखावों और बड़े तमग़ों की कतारों से प्रभावित न हों। वो इस बात से भी प्रभावित ना हों कि नौसेना के बड़े से बड़े अधिकारी इस व्यक्ति के चरित्र को सही ठहराने के लिए इस अदालत में आ कर गवाही दे रहे हैं। मुझे तो ऐसा लग रहा है कि पूरी नौसेना, नागरिक प्रशासन से लड़ाई पर उतर गई है। सच मानिए, ये पूरा मामला एक प्रेम त्रिकोण का है और यह आदम और हव्वा के ज़माने से होता आ रहा है।''
           ललिता रामदास पूर्व नौसेनाध्यक्ष ऐडमिरल रामदास की पत्नी हैं। जिस समय यह वाक्यों हुआ, वो कॉलेज में पढ़ती थीं। उस समय के नौसेनाध्यक्ष ऐडमिरल कटारी उनके पिता थे। चूंकि नानावती उनके पिता के प्रिय कमाण्डर थे। ललिता उन्हें अंकल कह कर बुलाती थी।
             ललिता रामदास याद करते हुऐ कहती हैं, 'जब मैं पहली बार नानावती से मिली तो तब वो लेफ़्टिनेंट हुआ करते थे। ये सब हमारे घर पर आते थे। खाना खाते और गप्पें लड़ाते. मेरे पिता ऐडमिरल कटारी आज़ादी के बाद पहले भारतीय नौसेनाध्यक्ष बनाए गए थे। मेरी नज़र में नानावती बहुत ही पेशेवर नौसैनिक अधिकारी थे। मुझे याद है जब इन दोनों की शादी हुई थी। सिल्विया बहुत खूबसूरत थीं। नानावती बहुत डैशिंग थे औरहम लोग उनको हीरो वरशिप किया करते थे। गज़ब के कपल थे वो दोनों।' 
            दिलचस्प बात ये थी, कि कमांडर कवास नानावती को उनकी गिरफ़्तारी के बाद आर्थर रोड जेल में न रख कर नौसेना की जेल में रखा गया। कहा तो यहाँ तक जाता था कि उनके कुत्ते तक को उनसे मिलवाने नौसेना की उस जेल में ले जाया जाता था।
            जब भी नानावती अदालत में सुनवाई के लिए आते, वो नौसेना की सफ़ेद बुर्राक युनिफोर्म पहने हुए होते थे और उनको मिले तमग़े उन पर चमक रहे होते धे। बची करकरिया अपनी किताब में स्वयं इस सवाल का जवाब देती है कि, ''क्या उन्होंने ऐसा अपने वकीलों की सलाह पर किया था?'

           बची करकरिया का जवाब था, ''ऐसा लगता है कि ऐसा उन्होंने जानबूझ कर किया था। एक तो वो लंबे-चौड़े थे... छह फ़ीट से ऊँचा उनका कद था। अदालत में ये चीज़ बार-बार कही गई कि कमाण्डर नानावती की गिनती भारतीय नौसेना के सबसे काबिल अधिकारीयों में होती है। ऐसा लगता था, कि प्रेम आहुजा ने उनकी पत्नी को अपने प्रेम जाल में फंसा कर ग़ैर-देशभक्तिपूर्ण काम किया था।''
          इस पूरे मामले में मुंबई से छपने वाले अंग्रेज़ी टैबलॉएड 'ब्लिट्ज़' खुल कर कमाण्डर नानावती के समर्थन में उतर आया था। आजकल आमतौर पर अपराधी का मीडिया ट्रायल किया जाता है। लेकिन तब 'ब्लिट्ज़' ने पीड़ितप्रेम आहुजा का मीडिया ट्रायल कर एक नई मिसाल कायम कर दी थी।
            सबीना गडियोक, जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के एके किदवई मीडिया रिसर्च सेंटर में प्रोफ़ेसर हैं। जिन्होंने इस हत्याकांड के उस समय के मीडिया कवरेज पर एक लेख लिखा है। सबीना लिखती हैं- ''टेलीविज़न युग से पहले कमाण्डर नानावती केस एक तरह का मीडिया इवेंट था। प्रेम आहूजा के नाम पर तौलिए बिकने लगे और हॉकर आवाज़ें लगाने लगे, आहूजा का तौलिया... गोली मारेगा तो भी नहीं गिरेगा।
            जब कमाण्डर नानावती अदालत में जाते थे, तो लड़कियाँ रास्ते में खड़े हो कर उन पर फूल फेंकती थीं। ब्लिट्ज़ ने सुनिश्चित कर दिया कि हर अदालती लड़ाई हारने के बावजूद भी कमाण्डर नानावती दिमाग़ और दिल की जंग जीतें। शायद इन्ही वजहों से उन्हें माफ़ी भी मिली। परन्तु उन्हें अपने ऊँचे उठते रुआबदार करियर से हाथ धोना पड़ा। इस प्रकार एक स्कैंडल को राष्ट्रीय महत्व मिल गया।
           यह कोई ऐसा वक्त नहीं था, जिसे राजनीतिक रूप से शांत कहा जा सके। पाकिस्तान के साथ भारत का तनाव चरम की ओर जा रहा था। चीन के साथ भी भारत के मतभेद उभरकर फ़लक पर आ चुके थे। नए राज्यों का उदय हो रहा था। केरल में पहली लालध्वजी वामपंथी सरकार का गठन हो चुका था। ऐसे हालातों में भी हर जगह कमाण्डर नानावती केस की चर्चा हो रही थी। दिल्ली के अख़बारों में भी इसका काफ़ी ज़िक्राम हो चला था।
           यह सब मीडिया कवरेज का ही प्रभाव था, कि अपराध करने के बावजूद भी सारे मुल्क की सहानुभूति कमाण्डर नानावती के साथ थी। यहाँ तक कि कुछ हलकों में इस मुक़दमे की तुलना महात्मा गांधी की हत्या के मुक़दमे से भी की गई थी।
           सबीना बताती हैं- 'इंडियन एक्सप्रेस ने ना केवल इसकी गांधी हत्याकांड वरन् बंगाल के भुवाल संन्यासी मुकदमे, मेरठ कॉन्सपिरेसी केस और यहाँ तक कि भगत सिंह के मुकदमे से भी इसकी तुलना की डाली।' ब्लिट्ज़ इस हद तक पहुंच गया कि उसने ये तर्क भी दे दिया, कि कमांडर कवास नानावती को सिर्फ़ इसलिए छोड़ दिया जाए कि चीन  युद्ध में उनके विशाल अनुभवों का फ़ायदा राष्ट्रहित मे उठाया जा सके।
           यह पहली बार था, जब नौसेनाध्यक्ष ऐडमिरल कटारी ख़ुद अपने कैनबरा विमान से उड़ कर कमाण्डर नानावती के पक्ष में गवाही देने बंबई पहुंचे थे। पूरी नौसेना और यहाँ तक कि रक्षा मंत्री वी. के. कृष्णा मेनन भी पूरी तरह खुल कर कमाण्डर नानावती के समर्थन में आ गए थे।
            बची करकरिया कहती हैं- ''रक्षा मंत्री ने कई कदम आगे बढ़ कर कमाण्डर नानावती का समर्थन किया। कमाण्डर नानावती लंदन में भारतीय उच्चायोग में नैवेल अटाशी के पद पर काम कर चुके थे। शायद उस समय से मेनन उनको जानते थे। नेहरू तक ने सफाई दी कि कमाण्डर नानावती के किसी परिवार वाले ने उनकी सिफ़ारिश उनसे नहीं की थी। परन्तु नौसेनाध्यक्ष ने ज़रूर माना था कि कमाण्डर नानावती बहुत काबिल ऑफ़िसर थे। इसलिए उनके साथ इतनी सख़्ती से पेश नहीं आया जाए।
           लेकिन तमाम जन समर्थन के बावजूद कमाण्डर कवास नानावती सम्पूर्ण अदालती लड़ाइयाँ हार गए और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। लेकिन कमाण्डर नानावती को अधिक समय तक जेल में नहीं बीताना पड़ा। महाराष्ट्र की तत्कालीन राज्यपाल विजयलक्ष्मी पंडित ने उनकी सज़ा समाप्त करते हुए उन्हें क्षमादान दे दिया।
            कमाण्डर नानावती और सिल्विया की इस कहानी ने भारत ही नहीं वरन् दूसरे देशों में भी काफ़ी मीडिया कवरेज बटोरी। टाइम और न्यूयॉर्कर ने इस पर कई कहानियाँ की। इसी कहानी पर अब तक कम से कम तीन हिंदी फ़िल्में बनाई जा चुकी है।
            प्रोफ़ेसर सबीना गडियोक बताती हैं, "एक फ़िल्म बनी, 'ये रास्ते हैं प्यार के', फिर एक फ़िल्म बनी 'अचानक' और हाल में एक और फ़िल्म बनी 'रुस्तम'। जिनमें इस कहानी को आधार बनाया गया। सलमान रुश्दी की 'मिडनाइट चिल्ड्रेन' में भी इसकी झलक दिखाई देती है। साल 2002 में इंदिरा सिन्हा ने इस पर एक उपन्यास लिखा, 'द डेथ ऑफ़ मिस्टर लव'। रोहिंग्टनमिस्त्री की किताब 'सच ए लॉन्ग जर्नी' में भी इसका ज़िक्र किया गया था। तीन साल पहले आई फ़िल्म 'बॉम्बे वेलवेट' में भी इस प्रकरण को याद करते हुए एक गाना फ़िल्माया गया था, 'ये तूने क्या किया, सिल्विया........."।
            17 मार्च, 1964 को कमाण्डर कवास नानावती को लोनावला के एक बंगले, 'सनडाउन' से रिहा कर दिया गया। यहाँ वो एक-एक महीने के जमानत पर गत् छह माह से रह रहे थे। कमाण्डर नानावती ने तीन साल से भी कम वक्त जेल में बिताया। जेल से निकलते ही कवास नानावती अपनी पत्नी सिल्विया के साथ कनाडा चले गए और वहीं बस गए
           ।वहीं पर ही सन 2003 में कमाण्डर कवास नानावती देहांत हो गया। उनकी पत्नी सिल्विया अभी भी जीवित हैं। परन्तु इस घटना पर वो किसी से बात नहीं करना चाहतीं है।



इमेज कॉपीरइबची करकरिया की किताबलेकिन कवास नानावती ने अपनी पत्नी से एक शब्द भी नहीं कहा. इसके बाद वो दोनों अपने कुत्ते को दिखाने डॉक्टर के पास ले कर गए. लौट कर उन्होंने शोरबेदार कटलेट्स और प्रॉन करी और चावल का भोजन किया और पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार नानावती ने सिल्विया और बच्चों को अंग्रेज़ी फ़िल्म 'टॉम थंब' का मैटिनी शो दिखाने के लिए मेट्रो सिनेमा पर छोड



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