Friday 12 January 2018

परमाणु शक्ति पनडुब्बी

By Anuj beniwal
           पिछले दिनों मीडिया में आई खबरों के बाद अफवाहों के बवंडर उड़ने लगे।
nuclear sub marien
 खबर इस प्रकार थी कि भारत ने रुस से लीज पर ली गई परमाणु शक्ति पनडुब्बी आईएनएस चक्र को देखने की अनुमति अमेरिकी दल को दे दी थी।
जिससे यह भी कहा जा रहा था कि अब रूस की परमाणु शक्ति पनडुब्बियों की विशेष गुप्त जानकारियां अब बेहद गुप्त नहीं रह गई है। हालांकि बाद में यह खबर पूर्णतय असत्य साबित हुई।

परमाणु पनडुब्बी लीज 

           दरअसल आई एन एस चक्र भारत ने 2012 में 10 साल की लीज के लिए रूस से ली थी। 2022 तक आई एन एस चक्र भारतीय नौसेना का अंग रहेगी। इस लीज के समय कुछ शर्तें भी जोड़ी गई थी। जिनके अनुसार भारत इस पनडुब्बी का इस्तेमाल आक्रामक रूप से अथवा किसी अन्य देश पर हमले आदि के लिए नहीं कर सकता है। साथ ही अंतर्राष्ट्रीय विवादित स्थलों पर भी भारत इस पनडुब्बी को नहीं ले जाएगा। यह पनडुब्बी भारत को अपने सामरिक सुरक्षा के लिए ही लीज पर दी गई थी। 
            भारत दुनिया का अकेला ऐसा देश है, जिसने लीज पर कोई परमाणु शक्ति पनडुब्बी ली हो वही रूस दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जिसने परमाणु शक्ति पनडुब्बी लीज पर दी हो। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि किसी देश की नौसेना के लिए परमाणु शक्ति पनडुब्बी कितनी अहम होती है। 
           दरअसल आई एन एस चक्र लीज पर ली गई भारत की पहली परमाणु शक्ति पनडुब्बी नहीं है। इससे पहले भी परमाणु शक्ति पनडुब्बियां भारत ने रूस से लीज पर ली है। पहली परमाणु शक्ति पनडुब्बी रूस ने भारत को 1988 में लीज पर दी थी। 1964 से 1987 तक भारत के रक्षा सौदों में 70% से अधिक भागीदारी तत्कालीन सोवियत संघ की रही थी। क्योंकि शीत युद्ध के दौरान भारत सोवियत यूनियन का एक बहुत बड़ा सैद्धांतिक भागीदार था, तो वहीं रूस के रक्षा उत्पादों के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार भी था।
            हालांकि पहली बार जब सोवियत संघ ने भारत को परमाणु शक्ति पनडुब्बी लीज पर देने का विचार किया, तो वहां के नौसेना के बड़े अधिकारियों और एडमिरल ने इसका विरोध यह कहकर किया था कि इससे सोवियत नोसेना की सुरक्षा एवं गुप्तता में कमी आ सकती है। लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाईल गोरवाचोव ने भारत को यह पनडुब्बी देने का फैसला कर लिया। इस फैसले को भारत की बहुत बड़ी कूटनीतिक जीत के रूप में भी देखा गया था।

परमाणु शक्ति पनडुब्बी

परमाणु शक्ति पनडुब्बी क्या है?

           दरअसल परमाणु शक्ति पनडुब्बी से आशय यह नहीं है कि वह परमाणु हमला कर सकती है अथवा परमाणु मिसाइल दाग सकती है। बल्कि परमाणु शक्ति पनडुब्बी से आशय उस पनडुब्बी से है जिसे संचालन के लिए ईंधन के रूप में न्यूक्लियर रिएक्टर से प्राप्त ऊर्जा से चलाया जाता है। 
           वर्तमान में विश्व में कुल 6 देशों ने इस तरह की पनडुब्बियों का निर्माण किया है। ये देश संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस, फ्रांस, यूनाइटेड किंगडम, चीन और भारत है। भारत ने सन् 2016 में अपनी पहली परमाणु शक्ति पनडुब्बी आई एन एस अरिहंत रुस के तकनीकी सहयोग से लॉन्च की है।

परमाणु शक्ति पनडुब्बी के आविष्कार का प्रथम  चरण 

           आधुनिक परमाणु शक्ति पनडुब्बियों का आविष्कार कई चरणों में हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बड़े पैमाने पर पनडुब्बियों का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध में उपयोग में लाई गई पनडुब्बियों में कई खामियां थी। ये प्राथमिक पनडुब्बियां बैटरी चालित थी।  इस कारण इन बैटरीयों को बार-बार चार्ज करने की समस्या थी। इन बैटरीयों को बार-बार चार्ज करने के लिए सबमरीन में एक डीजल इंजन लगाया गया। इस डीजल इंजन को चलाने के लिए सबमरीन को सतह पर आना पड़ता था। सबमरीन के सतह पर आने से उसकी दृश्यता बढ़ जाती है और वह दुश्मनों के निशाने पर आ जाती है।

परमाणु शक्ति पनडुब्बी के आविष्कार का द्वितीय  चरण 

           इस समस्या के निराकरण के लिए एक जर्मन वैज्ञानिक ने एक नया विचार दिया। उनके अनुसार अगर हाइड्रोजन पेरोक्साइड (H2O2) का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाए, तो पनडुब्बी को पानी की सतह पर आने की आवश्यकता नहीं रहेगी। क्योंकि हाइड्रोजन परॉक्साइड को ईंधन के रूप में उपयोग करने के लिए वायु की आवश्यकता नहीं होती है। थोड़े ही समय में इस तकनीक में एक बड़ी खामी सामने आई। हाइड्रोजन परॉक्साइड से पनडुब्बियों में विस्फोट होने लगे।
nuclear submriene
            शीत युद्ध के समय पनडुब्बियों में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास हुआ। इस विकास में सोवियत संघ सबसे अग्रणी रहा। इसके बाद पनडुब्बियों में कुछ और तकनीकी भी आई। जिनमें द्रवित ऑक्सीजन, फ्यूल सेल और हाई पावर बैटरी का भी उपयोग किया गया। लेकिन इन सब में कई चुनौतियां सामान्य थी। प्रथम यह थी कि पनडुब्बी का आकार काफी छोटा रखा जाता था। ताकि अगर उसे सतह पर आना पड़े तो रडार के संपर्क में आने से बच सके। इसके अलावा पनडुब्बियों की रफ्तार बहुत कम थी और क्रू के सदस्यों एवं उसमें गोला-बारूद की भी बहुत ही सीमित मात्रा में रखा जाता था।

परमाणु शक्ति पनडुब्बी

           1960 के दशक में सोवियत संघ ने परमाणु शक्ति पनडुब्बी पर विचार करना शुरू किया। यह वह समय था जब पश्चिमी दुनिया में बड़े बड़े शहरों में आणविक बिजलीघरों से संवर्धित यूरेनियम ईंधन के द्वारा बिजली आपूर्ति की जाने लगी थी। सोवियत संघ ने इसी तकनीक को पनडुब्बियों में लाने की सोची। जिससे कई महीनों तक पनडुब्बी पानी के अंदर रह सकती थी और उसे सतह पर आने की आवश्यकता नहीं होगी।
           पनडुब्बियों में इस तकनीक के आने के बाद बहुत सारी समस्याओं का निराकरण हो गया। इससे पनडुब्बी बहुत लंबे समय तक पानी के अंदर बिना बाहर आऐ रह सकती थी। इसके अलावा पनडुब्बी का आकार बहुत बढ़ गया था। इसकी गति भी पहले से बहुत ज्यादा दुरुस्त हो गई। इसके अलावा परमाणु शक्ति पनडुब्बी अपने पुराने संस्करण की पनडुब्बियों से क्रू मेंबर्स और गोला बारुद ढोने में भी बहुत आगे निकल चुकी थी।

           यह तकनीक बेहद ही उन्नत किस्म की तकनीक है। स्थल पर बने यूरेनियम रिएक्टर में यूरेनियम 235 का इस्तेमाल किया जाता है। जिससे शांति प्रिय कामों में आणविक शक्ति का उपयोग हो सकता है, लेकिन साधारण यूरेनियम 235 से बहुत बड़ी पनडुब्बियों का संचालन नहीं किया जा सकता था। अतः इसके ईंधन में बदलाव किया गया। इसके लिए साधारण यूरेनियम 235 को उन्नत तकनीक से संवर्धित करके इस में उपयोग में लाया गया।
परमाणु शक्ति पनडुब्बी का ईंधन 

            भारत में यह पनडुब्बी लीज पर लेने के समय से ही संवर्धित यूरेनियम ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने से जुड़ी एक बड़ी समस्या सामने आई, क्योंकि भारत में उस समय चल रहे तारापुरृ और रावतभाटा जैसे परमाणु बिजलीघरों में सामान्य यूरेनियम 235 का इस्तेमाल होता था ना कि संवर्धित यूरेनियम का  इस पनडुब्बी की उच्च तकनीकी गुणवत्ता के कारण भारत में इसकी ईंधन की आपूर्ति भी बहुत मुश्किल से संभव हो पाई। रूस की मदद से भारत में यूरेनियम संवर्धन केंद्र स्थापित किया गया, लेकिन इसकी सीमाएं थी कि यह सर्फ पनडुब्बी के इंधन के लिए ही यूरेनियम का संवर्धन करता था।

परमाणु शक्ति पनडुब्बी का आंकलन 

             यह पनडुब्बी आकार में बहुत बड़ी होती है। इसमें बेहद उच्च गुणवत्ता वाले काफी महंगे उपकरणों का उपयोग किया जाता है। इस कारण यह पनडुब्बी सामान्य पनडुब्बियों से बहुत ज्यादा महंगी होती है एवं इसका एक बहुत बड़ा हिस्सा नौसेना के काम नहीं आ पाता है क्योंकि उसमें न्यूक्लियर रिएक्टर स्थापित किया जाता है एवं उसकी सुरक्षा मानकों के लिए पनडुब्बी का एक बहुत बड़ा हिस्सा बेकार में रह जाता है। इन सबके बावजूद भी मानवीय एवं भोजन की आवश्यकता ही इन्हें पानी से बाहर आने की बाध्यता पेश करती है। अगर पनडुब्बी रोबोटिक सिस्टम पर रहे तो यह कई सालों तक पानी के अंदर लगातार रह सकती है। इन्हीं कारणों से यूरोप के कई अमीर देश भी परंपरागत डीजल इंजन पनडुब्बियों पर ही अधिक भरोसा जताते हैं। जर्मनी जैसे विकसित देशों के पास परमाणु शक्ति पनडुब्बियां नहीं है। कई अन्य विकसित यूरोप के देशों के पास भी इस तरह की तकनीक नहीं है और उनकी दिलचस्पी भी इनमें नहीं।

परमाणु शक्ति पनडुब्बी भारत के परिपेक्ष्य में

           भारत के परिपेक्ष्य में बात की जाए तो जिस तरह हाल के दिनों में कूटनीतिक और सामरिक परिवर्तन विश्व पटल पर उभरे हैं। जिनसे की हिंद महासागर में तमाम विश्व शक्तियां अपना वर्चस्व बढ़ाने में लगी है और दुनिया भर की नौसेना अपनी गतिविधियां हिंद महासागर क्षेत्र में बढ़ा रही है, तो भारत को अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए परमाणु शक्ति पनडुब्बी नितांत आवश्यक बन जाती है।
           हाल ही में भारतीय नौसेना प्रमुख एडमिरल सुनील लांबा ने कहा था, कि अरिहंत श्रेणी की दो और पनडुब्बियों के अलावा भी भारत 6 अन्य परमाणु शक्ति पनडुब्बियों का निर्माण जल्द ही शुरू करेगा। भारत की विशाल तटरेखा की सुरक्षा एवं उसके आसपास ग्वादर एवं जिबूती जैसे बंदरगाहों पर चीन की नौसेना एवं परमाणु शक्ति पनडुब्बियों की लगातार बढ़ती दखल के बाद भारत को अपने सामरिक महत्व एवं वैश्विक प्रभाव को बनाए रखने के लिए इन पनडुब्बियों के निर्माण में अधिक तेजी के साथ निवेश एवं तकनीकी विकास की आवश्यकताएं लगातार बनी हुई है।

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